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प्रस्तावना
३७
यह द्वादशांग समुद्र के समान विशाल तथा गम्भीर है। सम्पूर्ण द्वादशांग की 'मध्यमपद' के रूप में गणना करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उसे कविवर द्यानतरायजी इस प्रकार बताते हैं
“एक सौ बारह कोडि बखानो। लाख चौरासी ऊपर जानो ॥
ठावनसहस पंच अधिकानो। द्वादश अंग सर्व पद मानो ॥" सम्पूर्ण श्रुतज्ञान में पदों की संख्या ११२,८४,५८००,५ होती है। बारह अंगों में निबद्ध अक्षरों के अतिरिक्त अक्षरों का प्रमाण ८०१०८१७५ है। इनकी अनुष्टुप् छन्दरूप गणना करें, तो २५०३३८० श्लोकों का प्रमाण होता है।
प्रथम अंग का नाम आचारांग है। इसमें अठारह हजार पद कहे गये हैं। ये मध्यम पद रूप हैं। एक मध्यम पद में कितने श्लोक होंगे, इसके विषय में कहा है
“कोडि इक्कावन आठ हि लाखं। सहस चुरासी छह सौ भाखं॥
साढ़े इक्कीस श्लोक बताये। एक एक पद के ये गाये ॥" इन श्लोकों की संख्या से अचारांग के १८००० पदों का गुणा करने के अनन्तर आचारांग के अपुनरुक्त अक्षर विशिष्ट श्लोकों की प्राप्ति होगी। जिस 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' नामक पंचम अंग का उपदेश धरसेन आचार्य ने भूतबलि पुष्पदन्त को दिया था और जो इस ग्रन्थराज के बीज स्वरूप है, उसमें पदों की संख्या इस प्रकार कही है
"पंचम व्याख्याप्रगपति दरसं। दोय लाख अट्ठाइस सरसं।" धरसेन गुरु द्वारा दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के चौथे पूर्व अग्रायणी सम्बन्धी उपदेश दिया गया था। उस दृष्टिवाद का भी बड़ा विशाल रूप है।
"द्वादस दृष्टिवाद पनभेदं, एक सौ आठ कोडिपन बेद।
अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंच पद मिथ्या हन हैं।" 'व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग में जिनेन्द्र भगवान् के समीप में गणधरदेव से जो साठ हजार प्रश्न किये गये थे, उनका वर्णन है। 'दृष्टिवाद' में तीन सौ तिरेसठ कुवादों का वर्णन तथा निराकरण किया गया है। इस अंग के पूर्वगत भेद का उपभेद अग्रायणीपूर्व है। उसमें सुनय, दुर्नय, पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थों आदि का वर्णन किया गया है। इस पूर्व के विषय में श्रुतस्कन्ध विधान में इस प्रकार कथन आया है-षण्णवति-लक्षसुपदं मुनि-मानसरत्न-कांचनाभरणम्, अंगाग्रार्थनिरूपकमर्थ्य चाग्रायणीयमिदम् ॥ द्वादशांग वाणी में दिव्यध्वनि का अधिक से अधिक सार संगृहीत रहता है। सर्वज्ञ भगवान ने विश्व के समस्त तत्त्वों का प्रतिपादन किया था, इस कारण द्वादशांग वाणी में भी सभी विषयों का विशद प्रतिपादन किया गया है। जब रत्नत्रय धर्म की विशुद्ध साधना होती थी, तब पवित्र आत्माओं में चमत्कारी ज्ञान की ज्योति जगती थी। अब राग-द्वेष-मोह के कारण आत्मा की मलिनता बढ़ जाने से महान् ज्ञानों की उपलब्धि की बात तो दूर है, वह चर्चा भी चकित कर देती है।
द्वादशांग वाणी की मर्यादा-द्वादशांग वाणी के अत्यन्त विस्तृत विवेचन के होते हुए भी समस्त पदार्थ का प्रतिपादन उसके द्वारा नहीं हो सका। कारण
१. षष्टिसहस्राणि भगवदर्हत्तीर्थंकरसन्निधौ गणधरदेवप्रश्नवाक्यानि प्रज्ञाप्यन्ते कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम। २. द्वादशमङ्गं दृष्टिवाद इति । दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते।-त. रा., पृ. ५१। ३. अग्रस्य द्वादशाङ्गेषु प्रधानभूतस्य वस्तुनः अयनं ज्ञानं अग्रायणं तत्प्रयोजनं अग्रायणीयम्। तच्च सप्तशतसुनयदुर्नय
पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्व-नवपदार्थादीन् वर्णयति।-गो. जीव. जी., गा. ३६५, पृ. ७७८
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