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________________ ३८ महाबन्ध “पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणमिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥"-गो. जी., गा. ३३४ पदार्थों का बहुभाग वाणी के परे है। वह केवलज्ञान गोचर है। अनिर्वचनीय पदार्थों का अनन्तवाँ भाग सर्वज्ञवाणी के गोचर है। इसका भी अनन्तवाँ भाग श्रुतरूप में निबद्ध किया गया है। श्रुतकेवली के ज्ञान के अगोचर पदार्थ का निरूपण दिव्यध्वनि में होता है। उस दिव्यध्वनि के भी अगोचर पदार्थ केवलज्ञान के विषय होते हैं। यह द्वादशांग वेद है, कारण यह किसी प्रकार के दोष से दूषित नहीं है। हिंसा का वर्णन करनेवाला वेद नहीं है। उसे तो कृतान्त (यम) की वाणी कहना चाहिए। महर्षि जिनसेन का कथन है "श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥"-महापु. ३६,२२ गुरु-परम्परा-गौतमस्वामी ने द्वादशांग ग्रन्थ का सुधर्माचार्य को व्याख्यान किया। धवलाटीका में सधर्माचार्य के स्थान में लोहाचार्य का नाम ग्रहण किया गया है। कछ काल के अनन्तर गौतमस्वामी केवली हुए। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विहार करके निर्वाण प्राप्त किया। उसी दिन सुधर्माचार्य ने जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया और केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार महावीर भगवान् के निर्वाण के बाद गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जम्बूस्वामी-ये तीन सकलश्रुत के धारक हुए; पश्चात् केवलज्ञान-लक्ष्मी के अधिपति बने। परिपाटी क्रम से ये तीन सकलश्रुत के धारक कहे गये हैं और अपरिपाटी क्रम से सकलश्रुत के ज्ञाता संख्यात हजार हुए। जयधवला में बताया है कि सुधर्माचार्य ने अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया। इसे ही धवलाटीका में स्पष्ट करते हुए कहा है कि अपरिपाटी की अपेक्षा संख्यात हजार श्रुतकेवली हुए। जम्बूस्वामी ने विष्णु आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया। सुधर्माचार्य ने बारह वर्ष विहार किया और जम्बूस्वामी ने अड़तीस वर्ष विहार किया, पश्चात् जम्बूस्वामी ने मोक्ष प्राप्त किया। जम्बूस्वामी के बारे में जयधवलाकार लिखते हैं-'एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली।'-ये इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम केवली हुए। इस कथन से यही अर्थ निकाला जाता है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् अन्य महापुरुष निर्वाण को नहीं गये। 'तिलोयपण्णत्ति' में लिखा है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण जाने के पश्चात् अनुबद्ध केवली नहीं हुए। “तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामित्ति केवली जादो। तम्मि सिद्धिं पत्ते केवलिणो णत्यि अणुबद्धा॥"-४,१४७७ गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जम्बूस्वामी-ये तीन अनुबद्ध-क्रमबद्ध परिपाटीक्रम युक्त (In १. श्रुतकेवलिनामपि अगोचरार्थप्रतिपादनशक्तिर्दिव्यध्वनेरस्ति। तद्दिव्यध्वनेरपि अगोचरजीवाद्यर्थ ग्रहणशक्तिः केवलज्ञानेऽस्तीत्यर्थः-गो. जीव., संस्कृतटीका, पृ. ७३१ २. 'तेण गोदमेण दुविहमवि सुदणाणं लोहज्जस्स संचारिदं। -ध. टी., १,६५ तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। -ज. ध., १,८४ ३. 'परिवाडिमस्सिदूण एदे तिण्णि वि सयलसुदधारया भणिया। ____ अपरिवाडीए पुण सयलसुदपारगा संखेज्जसहस्सा ॥' -ध. टी., १,६५ ४. तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो। -ज.ध., १,८४ "तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ विटु (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिदुवालसंगो केवली जादो ॥" -ध. टी., १,६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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