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________________ प्रस्तावना ३६ succession) केवली हुए। अननुबद्ध-अक्रमपूर्वक कैवल्य उपार्जन करनेवाले अन्य भी हुए हैं, जिनमें अन्तिम केवल श्रीधरमुनि ने कुण्डलगिरि से मुक्ति प्राप्त की। ___ "कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। चारणारिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य॥"-ति. प. ४,१४७६ तीन केवलियों में बासठ वर्ष व्यतीत हुए और विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु इन पाँच श्रुतकेवलियों में सौ वर्ष का समय पूर्ण हुआ। इन पाँच श्रुतकेवलियों की गणना भी परिपाटी क्रम-अनुबद्धरूप से की गयी, जो इस बात को सूचित करती है कि यहाँ अपरिपाटी क्रम की अपेक्षा नहीं ली गयी है। इन पाँच श्रुतकेवलियों में प्रथम श्रुतकेवली के नाम के विषय में 'तिलोयपण्णत्ति' तथा 'उत्तरपुराण' में भिन्न कथन आया है। उक्त दोनों ग्रन्थों में 'विष्णु' के स्थान पर 'नन्दि' का कथन किया गया है। धवला, जयधवला, हरिवंशपुराण, श्रुतावतार में विष्णु नाम दिया गया है। ये पाँच महापुरुष पूर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी हुए। इनके अनन्तर अनुक्रम से एकादश महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्व के पाठी हुए। निम्नलिखित इन एकादश मुनीश्वरों का काल एक सौ तिरासी वर्ष कहा गया है-१. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नागसेन, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ६. बुद्धिल, १०. गंगदेव, ११. धर्मसेन। ये ग्यारह नाम गिनाये गये हैं। इन नामों के विषय में उत्तरपुराण, धवला, हरिवंशपुराण एकमत हैं, किन्तु 'तिलोयपण्णति' तथा 'श्रुतावतार' में विशाखाचार्य की जगह क्रमशः विशाख तथा विशाखदत्त नाम आया है। बुद्धिल के स्थान पर श्रुतावतार में बुद्धिमान शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'तिलोयपण्णत्ति' में धर्मसेन की जगह सुधर्म नाम आया है। इन मुनियों के विषय में आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि ये-"द्वादशांगार्थ-कुशला दशपूर्वधराश्च ते।” (उ. पु. पर्व ७६, श्लोक ५२३)-द्वादशांग में कुशल तथा दश पूर्वधर थे। इनके अनन्तर एकादशांग के ज्ञाता नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच महापुरुष दो सौ बीस वर्ष में हुए। इन नामों के विषय में तिलोयपण्णत्ति, उत्तरपुराण तथा धवला एकमत हैं। जयधवला में 'जयपाल' के स्थान में 'जसपाल' तथा हरिवंशपुराण में 'यशःपाल' नाम आये हैं। श्रुतावतार में 'ध्रुवसेन' की जगह 'द्रुमसेन' नाम आया है। इनके पश्चात् आचारांग के ज्ञाता सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य एक सौ अठारह वर्ष में हुए। इन नामों में श्रुतावतार में इतनी भिन्नता है कि 'यशोभद्र' की जगह 'अभयभद्र' तथा 'यशोबाहु' की जगह 'जयबाहु' नाम प्रयुक्त हुए हैं। शेष ग्रन्थकार भिन्नमत नहीं हैं। महावीर भगवान् के निर्वाण के पश्चात् अनुबद्ध क्रम से उपर्युक्त अट्ठाईस महाज्ञानी मुनीन्द्र छह सौ तिरासी वर्ष में हुए थे। क्रमबद्ध परम्परा को ध्यान में रखकर ही वीर निर्वाण के पश्चात् होनेवाले महापुरुषों का कथन किया गया है। 'श्रुतावतार' कथा में लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हबलि तथा १. जयधवलाकारने परिपाटीक्रमका पर्यायवाची ‘अतुट्टसंताणेण' (१, ८५) जिसकी संतान या परम्परा अत्रुटित है, ऐसा कहा है। २. अपने 'जैन साहित्य और इतिहास के पृ. १४, १५ पर श्री नाथूरामजी प्रेमी लिखते हैं-"भगवान् महावीर के बाद तीन ही केवलज्ञानी हुए हैं, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे। ऐसी दशामें यह समझ में नहीं आता, कि यहाँ श्रीधर को क्यों अन्तिम केवली बतलाया और ये कौन थे तथा कब हुए हैं। शायद ये अन्तःकृत केवती हों।" इस शंका का निवारण पूर्वोक्त वर्णन से हो जाता है, कारण श्रीधर मुनि अननुबद्ध अन्तिम केवली हुए हैं, जिनका निर्वाणस्थल कुंडलगिरि है। इनको अन्तःकृत केवली मानने में कोई आगम का आधार नहीं है। सामान्यतया नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु-ये पाँच श्रुतकेवली कहे गये हैं, किन्तु धवलाटीका से ज्ञात होता है कि अपरिपाटी क्रम की अपेक्षा ये द्वाशांग के पाठी संख्यात हजार थे। 'जयधवला' से भी इस अधिक संख्या की पुष्टि होती है। यही युक्ति केवलियों के विषय में लगेगी। शास्त्रों में अनुबद्धकेवली तथा श्रुतकेवली की मुख्यता से प्रतिपादन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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