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महाबन्ध
माघनन्दि, इन छह महापुरुषों को अंगपूर्व के एकदेश के ज्ञाता कहा है। अन्य ग्रन्थों में ये नाम नहीं दिये गये हैं। सम्भवतः ये नाम अनुबद्ध परम्परा के क्रम से और भी अक्रमबद्ध परम्परावाले मुनीश्वर रहे होंगे।
अंग-पूर्वो के एकदेश ज्ञाता- जयधवला टीका में लिखा है कि लोहाचार्य के पश्चात् अंग और पूर्वो का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ था। जयधवलाकार के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं- “तदो अंग-पुव्वाणमेगदेसो चेव आइरिय-परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो” (जय. ध. भाग १, पृ. ८७)। धवलाटीका में इस सम्बन्ध में लिखा है-, "तदो सव्वेसिं-भंग-पुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणों धरसेणाइरियं संपत्तो"-(१,६७)-लोहार्य के पश्चात आचार्य परम्परा से सम्पूर्ण अंग और पूर्वो का एकदेशज्ञान धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ। आचार्य धरसेन अथवा गुणधर स्वामी भी विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हबलि तथा माघनन्दि मुनीश्वरों के समान अंग-पूर्व के एकदेश के ज्ञानी थे। ये नाम सम्भवतः क्रमबद्ध परम्परागत न होने से हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में नहीं पाये जाते हैं। प्रतीत होता है कि इन मुनीश्वरों के समय में कोई विशेष उल्लेखनीय अन्तर न रहने से इनके काल का पृथक् रूप से वर्णन नहीं पाया जाता है। आचारांग के पाठी आचार्य वीरनिर्वाण के पश्चात छह सौ तिरासी वर्ष तक हुए। स्थूल रीति से वही समय धरसेनस्वामी तथा गुणधर आचार्य का रहा होगा।
विचारणीय विषय-इस विषय में यह कथन विचारणीय है; वीर निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष तथा पाँच माह व्यतीत होने पर शकराजाकी उत्पत्ति कही गयी है। 'त्रिलोकसार' में लिखा है
"पण-छस्सयवस्सं षणमास जुदं गमिय वीरणिव्वइदो।
सगराजो तोकक्की चदु-णव-तिय-महियसगमासं ॥५०॥" वीरभगवान् के निर्वाण जाने के छह सौ पाँच वर्ष, पाँच माह पश्चात् शक राजा हुआ। उसके अनन्तर तीन सौ चौरानवे वर्ष, सात माह के पश्चात् कल्की हुआ। इस गाथा की टीका में माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव कहते हैं-"श्रीवीरनाथनिवृत्तेः सकाशात् पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पंच (५) मासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमांकशकराजो जायते"-यहाँ शकराजा का अर्थ विक्रमराजा किया गया है। इस कथा के प्रकाश में आचारांग के पाठी मुनियों का सद्भाव विक्रम संवत् ६८३-६०५७८ आता है। विक्रम संवत् के सत्तावन वर्ष पश्चात् ईसवी सन् प्रारम्भ होता है; अतः ७८-५७=२१ वर्ष ईसा के पश्चात् आचारांगी लोहाचार्य हुए। उसके समीप ही धरसेन स्वामी का समय अनुमानित होने से उनका काल ईसवी की प्रथम शताब्दी पूर्वार्ध होना चाहिए।
दो परम्परा-श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार विक्रम के चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व भगवान् महावीर का निर्वाण कहा जाता है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर मान्यता से एक सौं पैंतीस वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण
ती है। इतिहासकारों के मध्य प्रचलित वीरनिर्वाण काल ईसवी पूर्व पाँच सौ सत्ताईस वर्ष श्वेताम्बर परम्परा के आधार पर अवस्थित है। ४७० + ५७-५२७ वर्ष ईसा के पूर्व महावीर भगवान् हुए।
मुख्य विचारणीय विषय है कि 'शकराज' का क्या अर्थ किया जाय?' यदि शालिवाहन शक अर्थ किया जाता है, तो महावीर भगवान का निर्वाण काल ईसवी के पाँच सौ सत्ताईस वर्ष पूर्व होता है। उसके आधार पर यदि धरसेन स्वामी का समय निकाला जाएगा, तो ईसवी सन् इक्कीस में एक सौ पैंतीस और जोड़ने पड़ेंगे। इस प्रकार वह समय एक सौ छप्पन ईसवी होगा अर्थात् ईसा की दूसरी शताब्दी हो जाएगा। दिगम्बर आगम के कथन में श्रद्धा करनेवालों की दृष्टि में वीरनिर्वाण काल विक्रम संवत् से छह सौ पाँच वर्ष पाँच माह पूर्व माना जाएगा। अतः विक्रम संवत् २०२० में वीरनिर्वाण संवत् २०२० + ६०५ =२६२५ होगा।
१. इस सम्बन्ध में विशेष विवेचन आस्थान महाविद्वान् पण्डित शान्तिराज शास्त्री ने मैसूर राज्य-द्वारा मुद्रित तत्त्वार्थसूत्र
की भास्करनन्दी रचित टीका की संस्कृत भूमिका में किया है।
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