________________
प्रस्तावना
४१
दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए डॉ. जेकोवी ने लिखा था-"The traditional date of Mahavira's nirvana is 470 years before Vikrama according to the Svetambaras and 605 according to the Digambaras"-श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम से चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व हुआ था तथा दिगम्बरों की परम्परा के अनुसार वह छह सौ पाँच वर्ष पूर्व हुआ था।
पुरावृत्तज्ञ श्री राइस ने अपने शिलालेख संग्रह की प्रस्तावना में महावीर भगवान के निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष बाद उज्जैन के विक्रमादित्य का उल्लेख करते हए लिखा है :-"There was born Vikramaditya in Ujjayini and he by his knowledge of astronomy, having made an almanac established his own era from the year Rudhirodgāri, the 605 year after the death of Vardhamana.
उज्जैनी में एक विक्रमादित्य राजा उत्पन्न हुआ था, जिसने अपने ज्योतिष ज्ञान के बलपर एक पंचांग बनाकर रुधिरोद्गारी वर्ष से अपना संवत् चलाया था, जिसका समय वर्धमान के निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष बाद था।
सूत्रकार का समय
__अतः दिगम्बर परम्परा को ध्यान में रखते हुए आचार्य धरसेन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध मानना होगा तथा वही समय उनके पास में 'महाकम्मपयडिपाहुड' के रहस्य का अभ्यास करनेवाले महाज्ञानी पुष्पदन्त, भूतबलि मुनीश्वरों का मानना सम्यक् प्रतीत होता है। इस प्रकाश में 'महाबन्ध' के रचयिता आचार्य भूतबलि का समय ईसा की प्रथम शताब्दी स्वीकार करना होगा।
_ 'महाबन्ध' शास्त्र की रचना भूतबलि आचार्य ने की थी। इस सम्बन्ध में 'धवला' टीका में कहा है कि सौराष्ट्र देश के गिरिनगर पत्तन की चन्द्रा गुफा में अंग तथा पूर्व के एकदेश के ज्ञाता धरसेन आचार्य विराजमान थे। वे अष्टांग महानिमित्त विद्या के पारगामी थे। उनके चित्त में यह भय उत्पन्न हुआ कि आगे श्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाएगा। अतः प्रवचनवत्सल उन महर्षि ने दक्षिणापथ के निवासी तथा महिमा नगरी में एकत्रित आचार्यों के पास अपना एक लेख भेजा, जिसमें उनका मनोगत भाव सूचित किया गया था।
'श्रुतावतार' कथा में लिखा है-धरसेन आचार्य को अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत पंचम. वस्तु के चतुर्थ भाग महाकर्म प्राभृत का ज्ञान था। अपने निर्मलज्ञान में जब उन्हें यह भासमान हुआ कि मेरी आयु थोड़ी शेष रही है। यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जाएगा, तो श्रुत का विच्छेद हो जाएगा। ऐसा विचारकर उन्होंने देशेन्द्र देश के वेणातटाकपुर में निवास करनेवाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारी के द्वारा पत्र भेजा। उस पत्र में लिखा था-"स्वस्ति श्री वेणाकतटवासी यतिवरों को उजयन्त तट निकटस्थ चन्द्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवन्दना करके यह सूचित करता है कि मेरी आयु अत्यन्त अल्प रह गयी है। इससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की सम्भावना है, अतएव उसकी रक्षा के लिए आप शास्त्र के ग्रहण-धारण में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि दो यतीश्वरों को भेज दीजिए।" पश्चात् योग्य विद्वान् मुनीश्वरों के आने पर धरसेन स्वामी ने अपनी ज्ञाननिधि उन दोनों को सौंप दी थी।
बृहत्कथाकोश में विशेष कथन- 'आराधना कथाकोश' में दक्षिणापथ से आगत महिमा नगरी में विराजमान संघ के प्रमुख आचार्य का नाम महासेन दिया गया है। हरिषेण कृत बृहत्कथाकोश (पृ. ४२) में लिखा है कि उस समय सौराष्ट्र देश में धर्मसेन राजा का शासन था तथा उनकी रूपवती रानी का नाम धर्मसेना था। उसके गिरिनगर के समीप चन्द्रगुहा में धरसेन महामुनि रहते थे।
१. "तेण वि सोरट्ठविसय-गिरिणयरपट्टणचंदगुहाठिएण अटुंगमहाणिमित्तपारएण गंथवोच्छेदो होहदि त्ति जादभयेण पवयणवच्छलेण दक्खिणावहाइरियाणं महिमाए मिलियाणं लेहो पेसिदो।" .
-ध. टी., १,६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org