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महाबन्ध
“ततः सौराष्ट्रदेशेऽस्ति नगरं गिरिपूर्वकम् । धर्मसेननृपस्तत्र धर्मसेनास्य सुन्दरी ॥१॥ तत्पत्तनसमीपे च चन्द्रोपपदिका गुहा । सन्तिष्ठते गुरुस्तस्यां धरसेनो महामुनिः ॥२॥
विबुध श्रीधर रचित 'श्रुतावतार' (पृ. ३१६ ) से ज्ञात होता है कि धरसेन महामुनि के समीप भेजे गये दो शिष्यों का नाम 'सुबुद्धि' और 'नरवाहन' था । सुबुद्धि दीक्षा के पहले श्रेष्ठिवर थे और नरवाहन नरेश थे ।
जिस दिन मुनियुगल धरसेन मुनीन्द्र के समीप पहुँचे थे, उसके प्रभाव काल में धरसेन स्वामी ने एक स्वप्न देखा था कि दो सुन्दर धवलवर्ण बैलों ने उनके समीप आकर उनकी तीन प्रदक्षिणा दी और नम्रतापूर्वक उनके चरणों में पड़ गये। इस स्वप्न को देखकर स्वप्नशास्त्र के अनुसार उन्होंने उसे अत्यन्त शुभसूचक स्वप्न समझा। उन्होंने “जयउ सुददेवदा " - श्रुतदेवता की जय हो, ये शब्द उच्चारण किये। कुछ क्षण के अनन्तर महिमानगरी से आगत धारणा तथा ग्रहण शक्ति में प्रवीण मुनियुगल ने गुरुदेव को प्रणाम करके अपने आने का कारण निवेदन किया, “अणेण कज्जेणम्हा दोवि जणा तुम्हं पादमूलमुवगया" । आचार्य महाराज ने कहा, “सुट्टु, भद्दं” - ठीक है, कल्याण हो । (ध.टी., १,६८) हरिषेण कथाकोश (पृष्ठ ४२ ) में लिखा है
“उपविश्य क्षणं स्थित्वा प्रोचतुस्तौ मुनीश्वरम् । नाथ ! ग्रहीतुमायातौ त्वत्तो विद्यां मनोद्भवाम् ॥६॥"
वे क्षण-भर गुरु के चरणों में बैठे; पश्चात् खड़े होकर उन्होंने मुनीश्वर धरसेन स्वामी से कहा, “नाथ ! आपके अन्तःकरण से प्रसूत विद्या को ग्रहण करने को हम लोग आये हैं ।”
यह सुनकर धरसेन स्वामी ने समागत साधुयुगल की सत्पात्रता की परीक्षा करना उचित समझा, क्योंकि श्रुतज्ञान सामान्य वस्तु नहीं है। वह अमृत से भी विशेष महत्त्वपूर्ण है। आज जो पात्रता - अपात्रता का विशेष विचार किये बिना श्रुतदान का कार्य चलता है, उसका फल प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है कि किन्हीं के द्वारा पान किया गया श्रुतज्ञान रूप दुग्ध विषरूप परिणमन को प्राप्त होता है, अतः ऐसे लोग परमागम के द्वारा स्व-परकल्याण साधन के स्थान में अपनी शक्ति का उपयोग आगम निषिद्ध कार्यों में करते हैं । परम विवेकी धरसेन स्वामी ने सोचा- 'जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसारभयवद्धणं' - स्वच्छन्द वृत्तिवालों को विद्यादान संसार भय का संवर्धक है, अतः उन्होंने उन साधुयगल की सत्पात्रता, वीतरागता, विवेकशीलता तथा निर्भीकता आदि की परीक्षा के हेतु कोई शास्त्रीय प्रश्न न पूछकर दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं। एक का मन्त्र हीनाक्षर था, दूसरे का मन्त्र अधिक अक्षर वाला था । आचार्य ने कहा था- दो उपवासपूर्वक इनको सिद्ध करो। जब उन्होंने विद्या सिद्ध की, तब एक के समक्ष कानी देवी आयी और अधिक अक्षरवाले साधक के समक्ष दन्तुरा -लम्बे दाँतोंवाली देवी आयी। उस समय वे साधकयुगल विचार करने लगे
“विलोक्य देवतां व्यग्रामेताभ्यां चिन्तितं तदा । काणिकोद्दन्तुरा देवी दृश्यते न कदाचन ॥१०॥ शोधयित्वा पुनर्विद्यां मन्त्रव्याकरणेन तु । ऊनाधिकाक्षरं दत्वा हित्वा ताभ्यां विचिन्ततम् ॥११॥ भूयोऽपि चिन्तिता विद्या ताभ्यां देवी समागता । सर्वलक्षणसम्पूर्णा किंकर्तव्यसमाकुला ॥१२॥ विसृज्य देवतां साधू सिद्धविद्यौ तपस्विनौ । गुरोः समीपतां प्राप्य प्रोचतुस्तौ यथाक्रमम् ॥१३॥”
इन्होंने देवता के व्यग्र स्वरूप को देखकर विचार किया कि कोई भी देवी एकाक्षी नहीं होती तथा विकृत दन्तवाली नहीं होती, इसलिए उन्होंने मन्त्र के व्याकरण के अनुसार विद्यासाधन हेतु दिये गये मन्त्र को शुद्ध किया । न्यूनाक्षर मन्त्र में अक्षर जोड़े और अधिक अक्षरवाले में कम किये। इसके पश्चात् उन्होंने पुनः मन्त्र का चिन्तवन किया। उस समय सर्वलक्षणों से समलंकृत देवता का आगमन हुआ और उन्होंने उनसे अपने योग्य कर्त्तव्य बताने का अनुरोध कया। उन तपस्वियों ने विद्या सिद्ध कर उनका सम्यक् प्रकार विसर्जन किया और गुरु के समीप आकर निवेदन किया
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