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________________ प्रस्तावना “भवद्भिर्दत्तविद्यायां दत्तमेकं मयाक्षरम् । तथा निरस्तमेकं च महातीचारकारिणा ॥१४॥ कृतातीचारपापस्य प्रायश्चित्तं त्वमावयोः । प्रदेहि साम्प्रतं तेन स्वचेतः शुद्धिमिच्छतोः ॥१५॥” भगवन्! आपके द्वारा दी गयी विद्या में मैंने एक अक्षर जोड़ दिया। दूसरे साधक ने कहा- मैंने एक अक्षर कम कर दिया। ऐसा करने से हमारे द्वारा महान् दोष हुआ है। इस प्रकार अतिचाररूपी पाप करने के कारण आप हमें अभी प्रायश्चित्त दीजिए, जिससे हमारी मानसिक मलिनता दूर हो । उसे सुनकर धरसेन आचार्य ने कहा "ऊनाधिकाक्षरे विद्ये परीक्षार्थं यथाक्रमम् । वितीर्णे ते भवद्भ्यां मे न वा दोषोऽल्पकोऽपि सः ॥१७॥ ४३ मैंने तुम्हारी परीक्षा करने के लिए क्रमशः ऊन अक्षर और अधिक अक्षर युक्त विद्या तुम्हें दी थी। इसमें तुम्हारा तनिक भी दोष नहीं है । धरसेन स्वामी की परीक्षा में वे दोनों साधु विशुद्ध सुवर्ण सदृश प्रमाणित हुए। उन्होंने यह देख लिया कि साधु-युगल का चरित्र अत्यन्त निर्मल है । वे अत्यन्त बुद्धिमान, विवेकी ज्ञानवान् हैं तथा उनका मन विषयों के प्रति पूर्णतया विरक्त है । उन्हें विश्वास हो गया कि इनको दी गयी विद्या का मधुर परिणाम ही होगा, इसलिए उन्होंने–‘सोमतिहि णक्खत्त-वारे गंथो पारद्धो' - शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र तथा शुभ दिन में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया। आचार्य धरसेन स्वामी ने यह नहीं सोचा कि हमें धर्मरूप पवित्र ज्ञाननिधि इन्हें सौंपनी है, इसमें मुहूर्त आदि देखना अर्थहीन है। ऐसा न सोचकर उन परम विवेकी महाज्ञानी गुरुदेव ने शुद्ध काल रूप बाह्य सामग्री को अपने ध्यान में रखा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी सत्कार्य करने में बाह्य योग्य सामग्री की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । वादीभसिंह सूरिने 'क्षत्रचूड़ामणि' काव्य में लिखा है, “पाके हि पुण्य-पापानां भवेद् बाह्यं च कारणम्” ॥११- १४ ॥ पुण्य तथा पाप के उदय में बाह्य सामग्री भी कारण रूप होती है। उन महामेधावी, प्रतिभाशाली तथा लोकोत्तर व्यक्तित्व समलंकृत साधुयुगल को महाज्ञानी मुनीन्द्र धरसेन स्वामी ने उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया, जिसे उन महर्षियों ने अपने स्मृति पटल में पहले पूर्णतया अंकित कर लिया। इस प्रसंग में द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावरूप सामग्रीचतुष्य श्रेष्ठ रूप से विद्यमान थी, अतः धरसेनाचार्य का मनोरथ पूर्ण हो गया । आषाढ़सुदी एकादशी का महत्त्व - आषाढ़ सुदी एकादशी के पूर्वाह्न में 'महाकम्म- पयडि पाहुड' गत कर्म-साहित्य का उपदेश पूर्ण हो चुका। प्रवचन प्रेमवश धरसेन स्वामी के मन में जो पहले भय उत्पन्न हुआ था, वह भय अब दूर हो गया । उनकी श्रुतप्रेमी आत्मा को अवर्णनीय आनन्द हुआ। उन्होंने परम शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव किया । देवों द्वारा पूजा - 'धवला' टीका में लिखा है- “विणएण गंथो समाणिदोत्ति” (१,७०) विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त हुआ। “तुट्ठेहि भूदेहि तत्थेयस्तु महती पूजा पुष्प - बलि-संख - तूर-रव-संकुला कदा " - इससे सन्तोष को प्राप्त हुए भूतजाति के व्यन्तर देवों ने पुष्प, बलि, शंखों की उच्च ध्वनियुक्त वैभवपूर्ण पूजा की। पवित्र कार्य पूर्ति होने पर इस पंचमकाल में देवताओं का आगमन होकर पूजा का कार्य सम्पन्न होना असामान्य घटना थी । Jain Education International नामकरण - उस मंगल वेला में धरसेनाचार्य के मन में अपने श्रुतज्ञान निधि के उत्तराधिकारी उन शिष्य-युगल के नवीन नामकरण की भावना उत्पन्न हुई। 'धवला' टीका में लिखा है- “तं दट्ठूण तस्स भूदवलि' त्ति भडारएण णामं कयं । अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्थ - वियत्थ-ट्ठिय- दंत-पंति - भोसारिय भूदेहि समीकय दंतस्स 'पुप्फयंतो' त्ति णामं कयं । (१,७१) उस महान् पूजाको देवताओं के द्वारा सम्पन्न हुई देखकर भट्टारक धरसेन स्वामी ने भूतजाति के देवों द्वारा पुष्पादि से पूजा की जाने के कारण उन मुनीश्वरों को 'भूतबलि', यह संज्ञा प्रदान की तथा अस्त-व्यस्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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