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महाबन्ध
दन्तपंक्ति दूर कर भूत देवों ने जिनके दन्तों को समानरूपता प्रदान की, ऐसे देवपूजित द्वितीय साधुराज का नाम पुष्पदन्त रखा।
विबुध श्रीधर विरचित 'श्रुतावतार' में कहा है कि नरवाहन राजा ने मुनि पद को स्वीकार किया था। वे 'भूतबलि' इस संज्ञा-युक्त किये गये तथा सद्बुद्धि नामक द्वितीय मुनि का नाम पुष्पदन्त रखा था। पहले गृहस्थ जीवन में वे श्रेष्ठिवर थे।
धरसेन स्वामी का मनोगत-अष्टांग-निमित्त-विद्या के पारगामी धरसेन स्वामी को यह ज्ञात हो गया कि अब रत्नत्रय साधक उनका शरीर अधिक काल तक नहीं टिकेगा। अब उनका मरण समीप है। ऐसे अवसर पर ये दोनों मुनि यदि मेरे समीप रहेंगे, तो इनके चित्त में मेरे वियोग की व्यथा उत्पन्न होना सम्भव है, अतः उन वीतराग गुरुदेव ने मोहभाव का त्याग कर उन शिष्यों को उसी दिन प्रस्थान कर अन्यत्र चातुर्मास करने का आदेश दिया। धवला टीका में लिखा है-“पुणो तद्दिवसे चेव पेसिदा संतो-गुरुवयणमलंघणिज्ज इदि चिंतिऊणागदेहि अंकुलेसरे वरिसाकालो कओ” (१,७१) गुरु की आज्ञानुसार वे भूतबलि-पुष्पदन्त मुनिराज उसी दिन यह सोचकर कि 'गरु के वचन अलंघनीय होते हैं। वहाँ से रवाना हो गये और उन्होंने अंकलेश्वर में चातुर्मास किया।
इन्द्रनन्दि आचार्य ने लिखा है- "दूसरे दिन गुरु ने यह सोचकर कि मेरी मृत्यु निकट है, यदि ये समीप रहेंगे तो दुःखी होंगे। उन दोनों को कुरीश्वर भेज दिया। तब वे ६ दिन चलकर इस नगर में पहुँच गये और वहाँ पंचमी को योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया।"
विबुध श्रीधर ने धवलाकार के अनुसार उन मुनिद्वय का अंकुलेसर में चातुर्मास लिखा है। इसका कारण उन्होंने यह लिखा है कि धरसेन स्वामी ने अपनी मृत्यु को निकट ज्ञात किया तथा उससे इन मुनिद्वय को क्लेश न हो, इसलिए उनका वहाँ से प्रस्थान कराया।
वीतराग चित्तवृत्ति-इस प्रकरण से जिनेन्द्र के शासन में गुरु की वाणी का महत्त्व घोषित होता है। धरसेन आचार्य की वीतरागता का सजीव स्वरूप समझ आता है। अपने शिष्यों को मनोव्यथा न हो, यह विचार उनकी परम कारुणिक मनोवृत्ति को व्यक्त करता है। उनके वीतराग हृदय में यह मोहभाव नहीं रहा कि मेरे स्वर्ग प्रयाण करते समय मेरे शिष्य मेरे समीप में रहें। समाधिमरण के लिए तत्पर धरसेन स्वामी अपने को शरीर से भिन्न चैतन्य ज्योति स्वरूप एकाकी आत्मा सोचते थे, इसलिए उन्होंने विशुद्ध भावों के साथ उन अत्यन्त गुणी तथा महाज्ञानी साधुओं को सदा के लिए अपने पास से अलग भेज दिया। अब उनका विशुद्ध मन जिनेन्द्र-चरणों का स्मरण करते हुए कर्मजाल से विमुक्त चैतन्य की ओर विशेष रूप से केन्द्रित हो रहा था।
चातुर्मास का काल व्यतीत होने पर भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश-तामिल देश को गये-'भूदबलि-भडारो दमिलदेस गदो' तथा पुष्पदन्ताचार्य वनवास देशको गये। प्रतीत होता है कि इस चातुर्मास के भीतर ही महामुनि धरसेन स्वामी का स्वर्गवास हो गया होगा; अन्यथा उनके जीवित रहते हुए कृतज्ञ शिष्य-युगल गुरुदेव के पुण्य दर्शन हेतु गये बिना न रहते।
१. विबुध श्रीधर के शब्दों में इन्द्रभूति गणधर ने श्रेणिक महाराज से षट्खण्डागम सूत्र की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालते हुए कहा था :-“धरसेनभट्टारकः कतिपयदिनैर्नरवाहन-सद्बुद्धिनाम्नोः पठनाकर्णन-चिन्तनक्रियां कुर्वतोरषाढ-श्वेतैकादशीदिने शास्त्रं परिसमाप्ति यास्यति । एकस्य भूता रात्री बलिविधिं करिष्यन्ति, अन्यस्य दन्तचतुष्क सुन्दरम् । भूतबलिप्रभावाद् भूतबलिनामा नरवाहनो मुनिर्भविष्यति। समदन्तचतुष्टयप्रभावात् सद्बुद्धिः पुष्पदन्तनामा मुनिर्भविष्यति।
-श्रुतावतार, पृ. ३१७ । २. आत्मनो निकटमरणं ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।
-श्रुतावतार, पृ. ३१७।
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