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प्रस्तावना
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पुष्पदन्तस्वामी की रचना - 'धवलाटीका ' में लिखा है कि वनवास देश में पहुँचकर पुष्पदन्त स्वामी ने जिनालित को दीक्षा दी ।' बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणाके १७७ सूत्र बनाये और उन्हें जिनपालित के द्वारा भूतबलि स्वामी के समीप भेजे ।
जिनपालित– इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के कथनानुसार जिनपालित पुष्पदन्त स्वामी के भानजे थे । विबुधश्रीधर के श्रुतावतार में जिनपालित का नाम निजपालित आया है। धर्मकीर्ति शिलालेख नं. १ में ( पट्टावली बागड़ा संघ या लालवागढ़ ) जिनपालित को 'योगिराट्' - योगियों के अधीश्वर लिखा है ।
" तेषां नामानि वच्मीतः शृणु भद्र महान्वय । भद्रो भद्रस्वभावश्च धरसेनो यतीश्वरः ॥६॥ भूतबलिः पुष्पदन्तो निपालितयोगिराट् । समन्तभद्रो धीधर्मा सिद्धिसेनो गणाग्रणीः ॥७॥ *
भूतबलि की रचना - भूतबलि स्वामी ने जिनपालित के पास वीसदि सूत्रों को देखा, उसमें अन्तिम १७७वाँ सूत्र यह है- 'अणाहारा चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं, केवलीणं वा समुग्धादगदाणं अजोगिकेवली, सिद्धा चेदि।' उन्हें जिनपालित के द्वारा ज्ञात हुआ कि पुष्पदन्त का जीवन- प्रदीप शीघ्र बुझनेवाला है। इससे उनके हृदय में विचार उत्पन्न हुए कि अब 'महाकम्मपयडिपाहुड' का लोप हो जाएगा, अतः उन्होंने 'दव्यमाणानुगममादि काऊण गंथरचणा कदा' - द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थरचना की । 'षट्खण्डागम' में भूतबलि स्वामी रचित आदि सूत्र यह है - 'दव्वपमाणानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ।'-ध. टी. २,१
इस सूत्र के प्रारम्भ में वीरसेनाचार्य धवलाटीका में लिखते हैं
“संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव पिरमाणपडिवोहणटुं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह ” ( २,१)
'अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जाननेवाले शिष्यों को परिमाण का अवबोध कराने के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र कहते हैं ।'
पूर्वोक्त सूत्र को आदि लेकर शेष समस्त 'षट्खण्डागम' सूत्र भूतबलि स्वामी की उज्ज्वल कृति हैं । श्रुत पंचमी पर्व - इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार' से विदित होता है कि जब यह रचना पूर्ण हो गयी, तब चतुर्विध संघ सहित भूतबलि स्वामी ने ज्येष्ठ सुदी पंचमी को ग्रन्थराज की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की। उस समय से श्रुतपंचमी पर्व प्रचलित हो गया; जब कि श्रुत देवता की सर्वत्र अभिवन्दना की जाती है। इसके पश्चात् भूतबलि स्वामी ने यह रचना जिनपालित के साथ पुष्पदन्त स्वामी के पास भेजी। सौभाग्य की बात हुई, जो दुर्दैव ने पुष्पदन्ताचार्य को उस समय तक नहीं उठाया था। आचार्य पुष्पदन्त ने रचना देखी । अपना
१. तदो पुप्फदंताइरिएण जिणवालिदस्स दिक्खं दाऊण वीसदिसुत्ताणि कारिय पढाविय पुणो सो भूदवलिभयवंतस्स पासं पेसिदो । - ध. टी. १,७१
3. Documents produced by Digambaris bebore the court of Dhwajadand Commissioner Udaipur, pp. 29-30
३. भूदबलिभयवदा जिणवालिदासे दिट्ठवीसदिसुत्तेण अप्पाउओ त्ति अवगयजिणवालिदेण महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुम्पण्ण-बुद्धिणा पुणो दव्वपमाणाणुगममादिं काऊण गंथ रचणा कदा । --ध. टी., १,७१ ४. ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसंघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥१४३॥ श्रुतपंचमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ॥१४४॥
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- इ. श्रु ।
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