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________________ ४६ महाबन्ध मनोरथ सफल हुआ ज्ञात कर वे अत्यन्त आनन्दित हुए । उन्होंने भी चातुर्वर्णसंघ सहित सिद्धान्तशास्त्र की पूजा की। इस महाशास्त्र के रक्षण कार्य में जिनपालित की भी महत्त्वपूर्ण सेवा विदित होती है। हम देखते हैं कि चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् पुष्पदन्त अपने साथी भूतबलि को छोड़कर जिनपालित के पास वनवास देश में पहुँचते हैं। वे विंशतिसूत्रों की रचना करके अपना मन्तव्य भूतबलि के पास प्रेषित करते हैं। भूतबलि जब ग्रन्थराज का निर्माण पूर्ण कर लेते हैं, तब वे इन्हीं जिनपालित के साथ अपनी अमूल्य जीवन निधि-ज्ञाननिधि को पुष्पदन्ताचार्य के समीप भेजते हैं, ताकि उनका भी इस आगम-रचना के विषय में अभिप्राय ज्ञात हो जाय । जिनपालित योगिराज थे तथा पुष्पदन्त-जैसे महामुनि के अत्यन्त विश्वासपात्र थे । भूतबलि स्वामी ने भी उन्हें योग्य समझ अपने समीप स्थान दिया था और अपनी रचना उनके ही साथ पुष्पदन्त स्वामी के पास भिजवायी थी। इससे हमें प्रतीत होता है कि महान् ग्रन्थ - रचनाकार्य में वे भूतबलि स्वामी के समीप अवश्य रहे होंगे। बहुत सम्भव है कि भूतबलि स्वामी के तत्त्व प्रतिपादन को लिखने का कार्य जिनपालित द्वारा सम्पन्न हुआ हो । कम से कम इतना तो दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्तशास्त्र के उद्धार कार्य में जिनपालित मुनिराज का विशेष स्थान रहा। इसका वर्णन इसलिए नहीं मिलता कि पहले लोग कार्य को प्रधान मानते थे, नाम की ओर प्रायः कम ध्यान रहता था। इतना बड़ा 'षट्खण्डागम' महाशास्त्र निर्माण करते हुए भी ग्रन्थ में जब भूतबलि स्वामी का नाम कहीं नहीं आया, तब जिनपालित का नाम न आना विशेष आश्चर्यप्रद बात नहीं है । ग्रन्थ की प्रामाणिकता 'महाबन्ध' शास्त्र में सम्पूर्ण चर्चा आगमिक तथा अहेतुवाद- आश्रित है । आगम की निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत शास्त्र के विषय में पूर्णतया चरितार्थ होती है “पूर्वापरविरोधादेर्व्यपेतो दोषसन्ततेः । द्योतकः सर्वभावनामाप्तव्याहृतिरागमः ॥" - ध. टी., पृ. ८७५ - जो पूर्वापरविरोधादि दोषपरम्परा से रहित हो, सर्व पदार्थों का प्रकाशक हो तथा आप्त की वाणी हो, उसे आगम कहते हैं । कुन्दकुन्दस्वामी ने 'नियमसार' में कहा है “तस्स मुहग्गयवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चया ॥८॥ अरहन्त परमात्मा के मुख से विनिर्गत, पूर्वापर दोष रहित शुद्धवाणी को आगम कहा है। उस आगम के द्वारा तत्त्वार्थ का कथन किया गया है। यह आगम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कारण कहा गया है । ( नियमसार गाथा ५३) षट्खण्डासगम सूत्रों की, विशेषकर 'महाबन्ध' की चर्चा बहुत सूक्ष्म है। उसमें कहीं भी पूर्वापर विरोध का दर्शन नहीं होता। जितना सूक्ष्म चिन्तक एवं विचारक 'महाबन्ध' का पारायण करेगा, वह ग्रन्थ के विवेचन से उतना ही अधिक प्रभावित होगा। ग्रन्थ की महत्ता यथार्थ में पूर्वापर अविरोधिता में है। अपने विषय पर प्रकाश डालने में आचार्य ने किंचित् भी न्यूनता नहीं प्रदर्शित की है। ग्रन्थराज आप्त की कृति है, अतः यह स्वतः प्रमाण है। किसी हेतुवादरूप साधन-सामग्री की आवश्यकता नहीं है । आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र स्वामी का कथन है १. विबुध श्रीधरकृत 'श्रुतावतार' से ज्ञात होता है कि पुष्पदन्त आचार्य के साथ चतुःसंघ ने तीन दिन पर्यन्त बड़े उत्साहपूर्वक पूजा प्रभावना की थी। धार्मिक समाज ने व्रतादि का परिपालन भी किया था। पृ. ३१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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