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प्रस्तावना
“वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् ।
आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम् ॥७८॥
- वक्ता यदि अनाप्त है, तो युक्ति द्वारा जो बात सिद्ध की जाएगी, वह हेतुसाधित की जाएगी। और यदि वक्ता आप्त है, तो उनके वचनामत्र से ही बात सिद्ध होगी। इसे आगमसाधित कहते हैं।
भूतबलि को आप्त किस कारण माना जाय, इस सम्बन्ध में धवला टीका में सुन्दर तर्कणा की गयी है । शंकाकार कहता है; सूत्र की परिभाषा है
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"सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्विकहियं च ॥"
- गणधर का कथन, प्रत्येकबुद्ध मुनिराज की वाणी, श्रुतकेवली का कथन, अभिन्नदशपूर्वी का कथन सूत्र है ।
“ण च भूदबलिभडारओ गणहरो, पत्तेयबुद्धो, सुदकेवली, अभिण्णदसपुव्वी वा येणेदं सुत्तं होज्ज ? जदि एदं सुत्तं ण होदि तो...पमाणत्तं कुदो णव्वदे?” भूतबलि भट्टारक गणधर नहीं हैं । न वे प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्न दशपूर्वी हैं, जिससे यह शास्त्र 'सूत्र' हो जाय । यदि यह शास्त्र सूत्र नहीं होता है, तो इसमें प्रामाणिकता का किस प्रकार ज्ञान होगा?
इस शंका के समाधान में कहते हैं- “रागदोसमोहाभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराये आगत्तादो” (ध. टी., पृ. १२८२) 'यह ग्रन्थ प्रमाण है, कारण राग-द्वेष-मोहरहित प्रामाणिकता प्राप्त पुरुषपरम्परा से यह प्राप्त हुआ है।
इस ग्रन्थ में अप्रामाणिकता का लेश भी नहीं है । इस सम्बन्ध में वीरसेनाचार्य का कथन महत्त्वपूर्ण है । वे लिखते हैं? – इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षिरूप प्रणालिका के द्वारा प्रवाहित होता हुआ महाकर्म- प्रकृतिप्राभृतरूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगरी की चन्द्रगुफा में भूतबलि, पुष्पदन्त को सम्पूर्ण महाकर्म- प्रकृति-प्राभृत सौंपा। तदनन्तर श्रुतनदी का प्रवाह व्युच्छिन्न न हो जाय, इस भय से भव्य जीवों के अनुग्रह के लिए उन्होंने 'महाकम्मपयडि पाहुड' का उपसंहार करके षट्खण्ड बनाये । अतः यह त्रिकालगोचर समस्त पदार्थों को ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्ष तथा अनन्त केवलज्ञान से उत्पन्न हुआ है, प्रमाणस्वरूप आचार्य प्रणालिका के द्वारा आगत है और प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण से अबाधित है। अतः यह शास्त्र प्रमाण है । इसलिए मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओं को इसका अभ्यास करना चाहिए ।
पुनः शंकाकार कहता है- “सूत्र विसंवादी क्यों नहीं है?" उत्तर में कहते हैं- “ सूत्र में विसंवादीपना नहीं है, कारण यह विसंवाद के कारण सम्पूर्ण दोषों से मुक्त भूतबलि के वचनों से विनिर्गत है ।"२ पुनः शंकाकार तर्क करता है - " कदाचित् भूतबलि ने असम्बद्ध देशना की हो ?” इसके निराकरण में वीरसेन स्वामी कहते हैं- "ण चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परूवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड अभियधाणेण ओसारिदासेंसराग-दोस
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१. एवं पमाणीभूदमहरिसिपणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपहावो धरसेणभडारयं संपत्तो । तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलिपुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं । तदो भूदबलिभडारएण सुद-इ-पवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्टं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरियऊण छखंडाणि कयाणि, तदो तिकालगोयरासेस-पयत्थविसय-पच्चक्खाणंत केवलणाणप्पभवादो पमाणीभूदआइरियपणालेणादत्तादो, दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो, तम्हा मोक्खत्थिणा अब्भसेयव्वो ।
- ध. टी., सि., पृ. ७६२ ।
२. विसंवादी सुत्तं किण्ण जायदे ? ण, विसंवादकारण-सयलदोसमुक्क भूदबलि-वयणविणिग्गयस्स सुत्तस्स विसंवादत्तविरोहादो । -ध. टी. सि., पृ. १०३३
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