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महाबन्ध
मोहत्तादो”–भूतबलि भट्टारक असम्बद्ध प्ररूपण नहीं करेंगे, कारण उन्होंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अवधारण करने से रागद्वेष तथा मोह का निराकरण कर दिया है।
महाधवल मनोवृत्ति-वक्ता का जब विशिष्ट व्यक्तित्व स्थापित हो जाता है, तब उनकी वाणी में भी स्वयं विशेषता का अवतरण हो जाता है। इस चर्चा से यह बात भी ज्ञात हो जाती है कि महाकर्मप्रकृति प्राभूत के परिशीलन से राग, द्वेष तथा मोह का विनाश होता है, तब उस महाशास्त्र के उपसंहाररूप इस ग्रन्थराज के द्वारा भी रागद्वेष-मोह की विशेष मन्दता होती है। कषायादि की विशेष तीव्र अवस्था में तो मनोवृत्ति 'महाबन्ध' का अवगाहन भी नहीं कर सकेगी। इसके लिए अन्तःकरण वृत्ति की निर्मलता तथा निश्चिन्तता की परम आवश्यकता है। गृहस्थ सदृश आकुलतापूर्ण श्रमण भी इस शास्त्र का रसास्वाद नहीं कर सकता। श्रमणसदृश मनोवृत्ति तथा पवित्र परिणतियुक्त व्यक्ति इस महाशास्त्र का सम्यक् परिशीलन करने में समर्थ होगा। गार्हस्थिक आकुलतावाला व्यक्ति इस अमृतनिधि का आनन्द न ले सकेगा। प्रतीत होता है, इस बात को लक्ष्य में रखकर सर्वसाधारण को इस ज्ञानसिन्धु में अवगाहन करने का पात्र नहीं कहा। 'महाबन्ध' का रसास्वादन करनेवाले की मनोवृत्ति 'महाधवल' होनी चाहिए। इस ग्रन्थराज के द्वारा जीवन महाबन्ध से मुक्त हो महाधवल रूप होता है।
मंगल-चर्चा जैन शास्त्रकार अपने शास्त्र के प्रारम्भ में जिनेन्द्र भगवान् के गुणस्मरणरूप मंगल-रचना करते हैं। इसका कारण आचार्य विद्यानन्दि यह बताते हैं कि
“अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यः तत्प्रसादप्रबुद्धैर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥"
-श्लो. वा., पृ.२ 'अभिमतफल-सिद्धि का उपाय सुबोध है, वह शास्त्र से प्राप्त होता है और शास्त्र की उत्पत्ति आप्त से होती है, अतः शास्त्र के प्रसाद से प्रबोध प्राप्त पुरुषों का कर्तव्य है कि आप्त को अपनी प्रणामांजलि अर्पित करें, कारण सत्पुरुष अपने पर किये गये उपकार को नहीं भूलते।' मंगल के विषय में तिलोयपण्णत्ति में कहा है
“पढमे मंगलवयणे सिस्सा सत्थस्स पारगा होति।
मज्झिम्मे णिव्विग्घं विज्जा, विज्जाफलं चरिमे ॥१.२E" ग्रन्थ के आरम्भ में मंगल पाठ से शिष्य लोग शास्त्र के पारगामी होते हैं। मध्य में मंगल के करने से निर्विघ्न विद्या की उपलब्धि होती है तथा अन्त में मंगल करने से विद्या का फल प्राप्त होता है। 'महाबन्ध' का प्रथम पत्र नष्ट हो गया है. अतः ग्रन्थ के आदि में क्या मंगल श्लोक या सूत्र रहे, इसका परिज्ञान नहीं हो सकता। यह भी कल्पना हो सकती है कि 'कषायप्राभूत' के समान यहाँ भी मंगल न किया गया हो।
कषायप्रामृत में मंगल का अभाव-कषायप्राभूत की टीका में वीरसेन स्वामी लिखते हैं-“ववहारणयमस्सिदूण गुणहरभडारयस्स पुण एसो अहिप्पाओ, जहा-कीरउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण
अरहंतणमोक्कारो, मंगलफलस्स पारद्धकिरियाए अणुवलंभादो। एत्थ पुण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो। एदस्स अत्यविसेसस्स जाणावणटुं गुणहरभडारण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं।" (१६)।
“व्यवहार नय की अपेक्षा गुणधर भट्टारक का यह अभिप्राय है कि परमागम के अतिरिक्त अन्यत्र सर्वत्र नियम से अरहन्त-नमस्कार करना चाहिए, कारण प्रारब्धक्रियाओं में मंगलफलविघ्नध्वंसकता की अनुपलब्धि है। यहाँ इस बात का नियम नहीं है। परमागम में उपभोग लगने पर नियम से मंगल के फल
कबाब
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