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________________ प्रस्तावना ४६ की प्राप्ति होती है । इस अर्थविशेष का परिज्ञान कराने के लिए गुणधर भट्टारक ने ग्रन्थ के आदि में मंगल नहीं किया। यह विवेचन आपाततः विरोधात्मक दृष्टिगोचर होता है; किन्तु अनेकान्त शैली के प्रकाश में इनका समाधान स्वयं हो जाता है। महाबन्ध का मंगल - 'महाबन्ध' के मंगल के विषय में 'धवला' टीका के चतुर्थ वेदना नामक खण्ड में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। उसमें आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं- "निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है।" १ 1 अनिबद्ध मंगल-तब फिर वेदना खण्ड के आदि में ' णमो जिणाणं' आदि मंगल सूत्र हैं, वे निबद्ध मंगल हैं या अनिबद्ध मंगल ? वे निबद्धमंगलरूप नहीं हैं । कृति आदि चौबीस अनुयोग हैं अवयव जिसके, ऐसे महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतमस्वामी द्वारा प्ररूपित मंगल को भूतबलि भट्टारक ने वहाँ से उठाकर वेदना खण्ड के प्रारम्भ में स्थापित कर दिया, इस कारण इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध आता है । वेदनाखण्ड तो महाकर्मप्रकृति प्राभृत नहीं है । अवयव को अवयवी मानने में विरोध है । अर्थात् वेदनाखण्ड अवयव है, उसे महाकर्म प्रकृति प्राभृत रूप अवयवी मानने में विरोध आता है । भूतबलि तो गौतम हैं नहीं, विकल श्रुत के धारी धरसेनाचार्य शिष्य भूतबलि को सकल श्रुतधारी वर्धमान भगवान् शिष्य गौतम मानने में विरोध है । निबद्ध मंगल मानने में कारण रूप अन्य प्रकार है नहीं, अतः यह अनिबद्ध मंगल है | " आचार्य अपनी तर्कशैली से इसे निबद्धमंगल भी सिद्ध करते हैं । महापरिमाणवाले गणधरदेव रचित वेदना खण्ड के उपहसंहाररूप वेदनाखण्ड में वेदना का अभाव सर्वथा नहीं है । उनमें प्रमेय की दृष्टि से कथंचित् ऐक्य है। आचार्य भूतबलि और गौतम में भी कथंचित् अभिन्नता द्योतित करते हुए कहते हैं- “अथवा भूदवली गोदमो चेव, एगाहिप्पायत्तादो; तदो सिद्धं णिवद्धमंगलत्तमपि ।" अथवा भूतबलि गौतम है, कारण उनके अभिप्राय में एकत्व है । विशेष विचार - वेदना खण्ड में मंगल के दो भेद टीकाकार ने कहे हैं- “णिबद्धा - णिबद्धभेण दुविहं मंगलं" (पृ. ३१, ताम्रपत्र प्रति ) । मंगल के इन दो भेदों का कथन जीवट्ठाण प्रथम खण्ड में (पृष्ठ ७ ताम्रपत्रीय प्रति में) इस प्रकार आया है - " तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि” – वह मंगल निबद्ध, अनिबद्ध के भेद से दो प्रकार हैं । वेदना खण्ड में निबद्ध, अनिबद्ध शब्दों का उल्लेख करके उनकी परिभाषा नहीं दी गयी है। वहाँ इतना ही कहा है कि ' णमो जिणाणं' आदि सूत्र 'महाकम्मपयडि पाहुड' में गौतम स्वामीने रचे थे । उनकी वेदना, वर्गणा तथा 'महाबन्ध' इन तीन खण्डों का मंगल भूतबलि स्वामी ने माना है । भूतबलि स्वामी ने अन्य मंगल नहीं लिखे । जब ये मंगल सूत्र अन्य रचित हैं (borrowed ) तथा अन्य ग्रन्थ से उद्धृत किये गये हैं, तब ये अनिबद्ध मंगल हैं, ऐसा स्पष्ट धवला टीका में उल्लेख किया गया है। जीवद्वाण की टीका में मंगल के दो भेदों का उल्लेख करके इस प्रकार स्पष्ट किया है- “ तत्थ णिबद्ध णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कय- देवदा - णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धो देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं ।” (पृ.७, ताम्रपत्र प्रति ) - जो सूत्र के आरम्भ में सूत्रकर्ता के द्वारा किया गया अर्थात् रचा गया देवता का नमस्कार है, वह निबद्ध मंगल है तथा जो सूत्र के आदि में सूत्रकर्ता के द्वारा निबद्ध अर्थात् उद्धृत (borrowed) देवता का नमस्कार है, वह अनिबद्ध मंगल है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि जीवद्वाण के प्रारम्भ में पुष्पदन्त आचार्य ने जो णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, १. णिबद्धाणिबद्धभेएण दुविहं मंगलं । तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि । ण ताव णिबद्धमंगलमिदं ? महाकम्पयडिपा हुस्स कदिआदिचउवीस-अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलडं तत्तो आणेण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो। ण च वेयणाखण्डं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो। ण च भूदबली गोदमो, विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदाधारवड्ढमाणंतेवासिगोदमत्तविरोहादो । ण च अण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अत्थि । तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं । (ताम्रपत्र प्रति, भाग ४, पृ. ३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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