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________________ महाबंधे २४२ बंधगा अट्ठ-णव-चोदस० सव्वलोगो वा। अबंधगा अट्ठ-बारह० केवलिभंगो । दोणं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो। बादर-बंधगा अट्ठ-तेरह० । अबंधगा केवलिभंगो। पजत्तपत्तेय० बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । सुहुम-अपजत्त-साधारणबंधगा लोगस्स असंखेञ्जदिभागो सव्वलोगो वा । अबधगा अट्ठतेरह० केवलिभंगो। बादर-सुहुम-बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । जसगित्ति उज्जोव (?) बंधगा, अजस० बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-तेरह० केवलिभंगो । दोण्णं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबधगा केवलिभंगो । उच्चागोदं मणुसायुभंगो। णीचागोदं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्टचोद्दस० केवलिभंगो।। २००. एवं पंचमण० पंचवचि० । णवरि केवलिभंगो णत्थि । वेदणीयस्स अबंधगा णस्थि । काजोगि-ओघो। णवरि वेदणी० अबंधगा णस्थि । विहायोगति द्विकके अबन्धकों के मेरुतलसे ऊपर ६ राजू तथा नीचे २ राजकी अपेक्षा कई तथा मेरुतलसे ऊपर सात राजू तथा नीचे दो राज , इस प्रकार ४ भाग जानना चाहिए। सके बन्धकोंका, १३ है। अबन्धकोंके दई, ई वा केवली-भंग है । स्थावरके बन्धकोंका है, 8 वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका वई, १४ वा केवली-भंग है। दोनों के बन्धकोंका :, १४ अथवा सर्वलोक हैं ; अबन्धकोंका केवली भंग है। बादरके बन्धकोंका कई वा है। अबन्धकों के केवली-भंग है। पर्याप्त, प्रत्येकके बन्धकोंका ४, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका केवली-भंग है। सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है।' अबन्धकोंके वह, १३ वा केवली-भंग है । बादर, सूक्ष्म के बन्धकोंके कई, १ वा सर्वलोक है ; अबन्धकोंके केवली-भंग है । यश कीर्ति, उद्योत (?) के बन्धकों, अयश:कीर्तिके बन्धकोंके कई, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके , १३ वा केवली-भंग है। दोनोंके बन्धकोंके ४, १३ वा सर्वलोक भंग है, अबन्धकोंके केवली-मंग है। विशेष—यहाँ यशकीर्ति के साथ उद्योतका पाठ अधिक है, कारण परघात, उच्छ्वासके बन्धकों के अनन्तर उद्योतका वर्णन किया जा चुका है। उच्चगोत्रका मनुष्यायुके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, ई वा सर्वलोक है , अबन्धकोंका सर्वलोक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका ह, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके कई वा केवली-भंग है। २८०. पंच मन, पंच वचनयोगियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ केवली-भंग नहीं है । वेदनीयके अबंधक नहीं है। विशेषार्थ-पंच मनोयोगी, पंच वचनयोगियोंमें स्वस्थान पदोंसे वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पशन है। विहारवत् स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम वह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि मनोयोगी और वचनयोगी और जीवोंका विहार आठ राजू बाहल्य युक्त लोक नालीमें पाया जाता है। १. “पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगरस असंखेज्जदिभागो। अडचोद्दसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा।"-षट्खं०,फो० सू०६०, ६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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