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________________ पयडिबंधाहियारो २४३ २०१. ओरालियकाजोगीसु-पंचणा० छदंसणा० अट्ठकसा० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो। सेसाणं तिरिक्खोघो कादव्यो । णवरि अबंधा धुविगाणं भंगो आयु-संघडण-विहायगदिसरं मोत्तण । । २०२. ओरालियमिस्स-वेगुब्बियमिस्सआहार० आहारमिस्स खेत्तभंगो। णवरि ओरालियमिस्स-मणुसायुबंधगा लोगस्स असं खेजदिमागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा सबलोगो। २०३. वेगुम्विय-काजोगीसु-पंचणा० छदंस० बारसक० भयदु० ओरालि. तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पज्जत्त० पत्तेय-णिमिण-पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठ समुद्घातकी अपेक्षा वर्तमानकालकी प्रधानतामें लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । आहारक और तैजस समुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और मानुप क्षेत्रका संख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे कुछ कम दई भाग स्पृष्ट है, क्योंकि आठ राज आयत लोक नालीमें सर्वत्र अतीत कालकी अपेक्षा वेदना कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घात पाये जाते हैं। मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है । इन योगोंमें उपपाद पद नहीं होता, क्योंकि उपपाद पदमें मन योग व वचनयोगका अभाव है । (खुदाबंध,टीका पृ० ४११-४१३)। काययोगीमें-ओघके समान है। यहाँ वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं। २०१. औदारिक काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरण ४ तथा संज्वलन ४ रूप कपायाष्टक, भय-जुगुप्सा, तेजस-कार्मण, वण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंके सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है। शेष प्रकृतियोंका तिर्यंचों के ओघवत जानना चाहिए। विशेष, आय. संहनन, विहायोगति तथा स्वरको छोड़कर अबन्धकोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका भंग जानना चाहिए। २०२. औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारक, आहारकमिश्रमें क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग जानना चाहिए। विशेष, औदारिक मिश्र काययोगमें-मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है ; अबन्धकोंके सर्वलोक है। २०३. वैक्रियिक काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, अप्रत्याख्यानावरणादि १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तेजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, १. कायजोगी-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्याण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं १ सब्बलोगो - (खु०बं० पृ. १५३) । २. "ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं (सव्व लोगो) । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।-पटूखं०, फो०,सू० ८१-८७ । ३. "वेउब्धियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी-सासणसम्मादिदी-असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-स०९४ । “आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-सू०६५। "ओरालिमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ।"-सू०८८। “सासणसम्माइट्टि -असंजदसम्माइट्टि-सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-सू० ८९ । ४. "वे उत्रियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्सं असंखेज्जदिभागो। अट्ठतेरहचोद्दसभागा वा देसूणा ।"सू०-९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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