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________________ पडबंधाहियारो २४१ अधगा अतेरह सव्वलोगो वा । दोगदि बंधगा छच्चोद्दस० । अबंधगा अट्ठतेरह ० केवलिभंगो । तिरिक्खगदि बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-बारह ० केवलिभंगो | चदुष्णं गदीणं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलि - भंगो। एवं आणुपुव्वीणं । एइंदिय० बंधगा अट्ठ-णव- चोदस० सव्वलोगो वा अबंधगा । अट्ठ-बारह ० केवलिभंगो । पंचिदि० बंधगा अट्ठ-वारह० । अधगा अट्ठणवचोदस० केवलिभंगो। पंचणं जादीणं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा hariगो | ओरालि० बंधगा अट्ठ-तेरह ०, सव्वलोगो वा । अबंधगा बारस० केवलिभंगो । वेउव्विय० बंधगा बारह० । अबंधगा अट्ठतेरह० केवलि-भंगो । दोण्णं बंधगा धुविगाणं भंगो। ओरालि० अंगो० अट्ठबारह चोदस० । अबंधगा अट्ठतेरह ० केवलिभंगो । वेउव्वि० अंगो० बंधगा बारह० । अबंधगा अट्ठतेरह० केवलिभंगो । दोण्णं बंधगाणं अट्ठबारहभागो । अबंधगा अट्ठणव- चोदसभागो केवलिभंगो। परघादुस्सा० बंधगा अट्ठ-तेरह भागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । उज्जोवस्त्र बंधगा अट्ठतेरह ० । अबंधगा अट्ठतेरहभाग केवलभंग | सत्य - अप्पसत्थविहायगदिबंधगा अडवारहभागो । अबंधगा० अतेरह० केवलिभंगो । दोष्णं बंधगा अबारहभागो । अबंधगा अट्ठ-णव- चोद्दस ० केवलिभंगो | तंसंबंधगा अट्ठबारह० । अबंधगा अड्गुणवचोद्दस ० केवलिभंगो । थावर । • है, अबन्धकोंका १४, बा सर्वलोक है । नरकगति- देवगति के बन्धकोंका है; अबकोंके १४, १३ वा केवली भंग है । तिर्यंचगतिके बन्धकोंका १, ३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंका १४, १३ वा केवली भंग है । चारों गतिके बन्धकोंका १४ वा सर्व लोक है; अबन्धकोंमें केवली-भंग है । आनुपूर्वियों में इसी प्रकार जानना चाहिए । एकेन्द्रिय बन्धक, वा सर्वलोक है अबन्धकोंके १४, १३ वा केवली-भंग है | पंचेन्द्रियके बन्धकका १४, १३ है; अबन्धकों का वा केवली भंग है । पंचजातियोंबन्धक वा सर्वलोक है, अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक शरीर के बन्धकों१४, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंके पे वा केवली भंग है । विशेष - औदारिक शरीरके अबन्धकों अर्थात् वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंके मेरुतल से ऊपर अच्युत पर्यन्त ६ राजू तथा सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६ राजू, इसी प्रकार के हैं । वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंके १४, अबन्धकोंके १४, १३ वा केवली भंग है। दोनों के बन्धकोंके १४, १४, लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन ध्रुत्र प्रकृतियोंके बन्धकोंके समान है; अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक अंगोपांगके बन्धकका १४, ३ है । अबन्धकोंका १४, १३ वा केवली भंग है। वैक्रियिक अंगोपांग बन्धकोंका है। अबन्धकोंका १४ वा केवली भंग है । दोनोंके बन्धकोंका १३ है । अबन्धकका १, १ वा केवलीभंग है । परघात, उच्छ्वासके बन्धकोंका १, वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके केवली-भंग जानना चाहिए | उद्योतके बन्धकोंका, १ है; अबन्धकोंका प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकोंका १४, १३ है । haar-भंग है । दोनों के बन्धकका १४, १३ है । अबन्धकोंका, वा केवली भंग है । अबन्धकोंका १३ व वा केवली भंग है । विशेष – एकेन्द्रिय जातिके साथ विहायोगतिका सन्निकर्ष नहीं पाया जाता है, अतः ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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