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________________ २०० महाबंधे दुस्मास आदाउजोव-दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा अणंता । एवं ओरालियकायजोगि-अवखुदंसणी-आहारगत्ति । ओरालियमिस्सका०-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तसोलसक० भयदु० ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ तित्थयराणं ( ? ) [ पंचंतराइगाणं] बंधगा अणंता । अबंधगा संखेजा। णवरि मिच्छत्त-अबंधगा असंखेजा। देवगदि०४ तित्थय० बंधगा संखेजा। अबंधगा अणंता। सेसं ओरालिय-काजोगिभंगो। एवं कम्मइगे । णवरि थीणगिद्धि३ मिच्छत्त-अणंताणु०४ अबंधगा असंखेजा। वेउब्वियकाजोगि-वेउब्बियमिस्स० देवोघं । णवरि वेउब्बियमिस्स. तित्थय० बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा। आहार. आहारमिस्स० मणुसभंगो। एवं मणपजव० संजद अनन्त हैं, अबन्धक संख्यात हैं । चार आयु, दो अंगोपांग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धक,अबन्धक अनन्त हैं। औदारिक काययोगी, अचक्षुदर्शनी तथा आहारक पर्यन्त इसी प्रकार है। औदारिकमिश्र काययोगियोंमें - ५ ज्ञानावरण, १ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४ [तथा पंच अन्तराय ] के बन्धक अनन्त, अबन्धक संख्यात हैं। __विशेष-यहाँ मूलमें आगत 'तित्थयराणं' पाठ के स्थानमें '५अन्तराय' का पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। कारण इसके बाद ही देवगति ४ के साथ तीर्थकर प्रकृतिका पृथक् रूपसे वर्णन किया गया है । वहाँ तीर्थकरके बन्धक संख्यात कहे हैं। इतना विशेष है कि मिथ्यात्वके अवन्धक असंख्यात हैं। देवगति ४ ( देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग ) तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक 'अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंका औदारिक काययोगीके समान भंग है। कार्मण काययोगियोंमें इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक असंख्यात हैं। वैक्रियिक काययोगी तथा वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंमें-देवोंके ओघवत् भंग जानना चाहिए। विशेप, वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंमें तीर्थकरके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं। 'आहारक, आहारकमिश्र काययोगमें-मनुष्यके समान भंग जानना चाहिए। विशेषाथे-आहारक काययोगी ५४ कहे गये हैं। आहारक मिश्रकाययोगी संख्यात कहे गये हैं । 'धवलाटीकामें लिखा है : “आइरिय-परंपरागद-उबदेसेण पुण सत्तावीसा जीवा होति"-आचार्य परम्परासे प्राप्त उपदेश सत्ताईस जीव होते हैं ।। (खु० बं०,पृ० २८१) १. "ओरालियमिस्सकायजोगी असंजदसम्माइट्री-सजोगिकेवली दवपमाणेण केवडिया? संखेज्जा।" -पट्खं०, द० सू०-११२-१४। २. "आहारकायजोगीसु पमत्त संजदा दव्वपमाणेण केवडिया? चदुवण्णं । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।"-पटखं०, द० सू० ११६-२०। ३. “आहारकायजोगीस पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया? चदुवणं । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ।"षट्खं०, द० सू० ११९-२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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