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महाबंधे
१४६ दोण्णं एक्कदरं० । ण चेव अबं० । एवं दोगोद। तिण्णि वेदाणं सिया बं० । तिण्णं वेदाणं एकदरं बं० । अथवा अबं० । एवं चदुणोक० । णामाणं सत्थाणभंगो । तित्थयरं बंधतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज. पुरिस० भयदु० उच्चा० पंचंत० णियमा बौं । णिद्दा-पचला-अट्ठक० दो आयु सिया ब० सिया अबं० । सादं सिया
०, असादं सिया । दोण्णं एक्कदरं ब० । ण चेव अब । एवं चदणोक० । णामाणं सत्थाणभंगो।
१२७. उच्चागोदं बंधतो पंचणा० चदुदंस० पंचंत० णियमा बौं । पंचदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० दोआयु० पंचिंदि० तिण्णिसरी०-आहार. अंगो० वण्ण० ४ [ अगु०४ ] तस०४ णिमिणं तित्थयरं सिया २० सिया अब । दो वेदणी० जस० अजस० सिया बौं । एदेसिं एकदरं बं० । ण चेव अब । तिण्णि वेदं सिया 4. सिया अब । तिण्णं वेदाणं एक्कदरं । अथवा अबौं । एस भंगो चदणोक० दोगदि० दोसरीरं छस्संठा० दो अंगो० छस्संघ० दो आणु० दो विहा० थिरादिपंचयुगलाणं । णीचागोदं बंधंतो थीणगिद्धिभंगो। देवायु-देवगदिदुगं उच्चागोदं वज्ज।
असाताका स्यात् बन्धक है [ स्यात् अबन्धक है ], दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। दो गोत्रका वेदनीयके समान भंग है। तीन वेदका स्यात् बन्धक है । इनमें से अन्यतमका बन्धक है . अथवा तीनोंका भी अबन्धक है। हास्य, रति, अरति, शोकका भी इसी प्रकार जानना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग है।
तीर्थकरका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। निद्रा, प्रचला, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण रूप कषायाष्टक, देव-मनुष्यायुका स्यात् बन्धक है , स्यात् अबन्धक है। सातावेदनीयका स्यात् बन्धक है, असाताका स्यात् बन्धक है। दोमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। हास्यादि ४ नोकषायोंका वेदनीयके समान भंग है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग है।
१२७. उच्चगोत्रका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, दो आयु ( मनुष्यदेवायु), पंचेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, आहारक अंगोपांग, वर्ण ४, [ अगुरुलघु ४ ], त्रस ४, निर्माण, तीर्थकरका स्यात बन्धक, स्यात अबन्धक है। दो वेदनीय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्तिका स्यात् बन्धक है । इनमें से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। तीन वेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तीन वेदोंमें-से अन्यतमका बन्धक है अथवा तीनोंका अबन्धक है । हास्यादि ४ नोकषाय, २ गति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि पांच युगलोंका इसी प्रकार भंग है।
नीचगोत्रका बन्ध करनेवालेके स्त्यानगृद्धिवत् भंग है। विशेष, यहाँ देवायु, देवगतित्रिक तथा उच्चगोत्रको छोड़ देना चाहिए।
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