SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पयडिबंधाहियारो १४७ १२८. एवं ओघभंगो मणुस०३ पंचिंदिय तस०२ पंचमण० पंचवचि० काजोगि-ओरालियकाजो० लोभ० चक्खु० अचक्खु० सुक्क० भवसि० सण्णि-आहारगत्ति । ओरालियमिस्स० सादं बंधंतो पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त-सोलसक० भयदु० दो आयु० देवगदि-चदुसरीर०-दो अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगुरु०४ आदावुज्जोव० णिमिणं तित्थय. पंचंत० सिया ५०, सिया अबं०। सेसाणं वेदादीणं सव्वाणं सिया बं० । एदाणं एक्कदरं बं० । अथवा अबं० । एवं कम्म०-अणाहारगेसु । ‘णवरि आयुवज्ज० इत्थिवेद० । आभिणिबोधि० बंधंतो चदुणाणा० चदुदंस० चदुसंज. पंचंत० णियमा बं० । सेसाणं ओघभंगो । एवं पुरि० णपुंस० कोध-माणमाया० । णवरि माणे तिणि संजल० । मायाए दो संज० । सेसाणं ओघो। अवगदवेदे ओघं । १२८. आदेशसे- मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, वस-पर्याप्तक, ५ मनोयोग, ५ वचनयोग, काययोग, औदारिककाययोग, लोभकषाय, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, संज्ञी, आहारक तक ओघवत् जानना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, साताका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यतिर्यंचायु, देवगति, औदारिक-वैक्रियिक, तैजस-कार्मण शरीर, २ अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थकर तथा ५ अन्तरायका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। विशेष-साताका सयोगीजिन पर्यन्त बन्ध है। ज्ञानावरणादिकां सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त बन्ध है । इस कारण साताके बन्धकके ज्ञानावरणादिके बन्धका विकल्प रूपसे वर्णन किया गया है। वेदादि शेष सर्व प्रकृतियोंका स्यात् बन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है अथवा सबका अबन्धक है। कार्माण काययोग तथा अनाहारकोंमें औदारिकमिश्रकाययोगके समान जानना चाहिए। विशेष - यहाँ आयुको छोड़ देना चाहिए । स्त्री वेदमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष. आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाला-४ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। शेष प्रकृतियोंका ओघके समान भंग जानना चाहिए। पुरुषवेद, नपुंसक वेद, क्रोध, मान, माया कषायोंमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। विशेष, मानमें, तीन संज्वलन और मायामें दो संज्वलन हैं। शेषका ओ जानना चाहिए। अपगत वेदमें-ओघके समान भंग जानना चाहिए। १. “ओराले वा मिस्से ण हि सुरणिरयायुहारणिरयदुर्ग ॥"-गो० क०,गा० ११६ । २. "कम्मे उरालमिस्सं वा गाउदुगंपि णव छिदी अयदे ।"-गो० क०, गा० ११९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy