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महाबंधे १२६. आभिणि० सुद० ओधिणा० मणपज्ज. संजद० समाइ० छेदो० परिहार० सुहुम० संजदासंजद० ओघिदं० सम्मादि० खइग० वेदग० उवसम० ओघभंगो । णवरि मिच्छत्त-असंजदपगदीओ वजं । ओरालिय० ओरालियामिस्स० इत्थिदे० किण्णणीलासु तित्थयरं देवगदिसंयुतं कादव्वं । पम्मसुक्क-लेस्सा० इथिवेदं बंधतो ओरालियसरीरं धुवं बंधदि । सेसं णिरयादि याव असणित्ति ओघेण अप्पप्पणो सामित्तेण च साधूण माणिदव्वं ।
एवं परत्थाणसण्णियासो समत्तो ।
१२९. आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, संयतासंयत, अवधिदर्शन, सम्यक्त्वी, क्षायिक सम्यक्त्व, · वेदक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्वमें ओघवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ मिथ्यात्व तथा असंयत सम्बन्धी प्रकृतियोंको छोड़ देना चाहिए। औदारिक, औदारिकमिश्र, स्त्रीवेद, कृष्ण और नील लेश्याओंमें-तीर्थकरका बन्ध देवगति संयुक्त करना चाहिए।
. पद्म, शुक्ल लेश्यामें-स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाला औदारिक शरीरका नियमसे बन्ध करता है। नरक गतिसे लेकर असंज्ञी पर्यन्त ओघसे अपने-अपने स्वामित्वको जानकर शेष प्रकृतियोंका कथन करना चाहिए।
इस प्रकार परस्थानसन्निकर्ष समाप्त हुआ।
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