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[ भंगविचया गुगम-परुवा ]
१३०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो दुविधो णिसो ओघेण आदेसेण य | ओघे० पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तेजाकम्म० आहारदुगं वण्ण०४ अगुरु ०४ आदावुज्जो० णिमिणं तित्थयरं पंचंत० अस्थिबंधा अगा च | सादं अस्थिबंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोष्णं पदी अस्थिबंधगाय अबंधगा य । एवं वेदणीयभंगो सत्तणोक चदुग० पंचजादिदोसरीर- छस्संठा' दोअंगो० छस्संघ० चदुआणु ० दोविहाय ० तसादिदसयुगलं दोगोदाणं । दो अंगो० छस्संघ - दोविहा० दोसर ० अस्थि बंधगा य अबंध० । अथवा दोष्णं छष्णं दोष्णं दोणं पि अस्थिबंधगा य अबंधगा य। गिरय- मणुस देवायूर्ण सिया सव्वे अबंधगा, सिया अबंधगा य बंधगे (गो) य, सिया अबंधगा य बंधगा य। तिरिक्खायु अस्थि गाय अबंधगा य । चदुष्णं आयुगाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य ।
१३१. एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियकायजोगि भवसिद्धि० आहारगत्ति० ।
[ भंगविचयानुगम ]
१३०. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है।
विशेषार्थ - भंगविचयका अर्थ है अस्ति नास्ति रूप भंगों का विचार । यहाँ कर्मप्रकृतियोंके सद्भाव, असद्भावका विचार किया गया है ।'
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्माण, आहारकद्विक, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं ।
साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । असाताके अनेक बन्धक और अबन्धक हैं। दोनों प्रकृतियोंके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । ७ नोकषाय ( भय जुगुप्साको छोड़कर ), ४ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रसादि १० युगल, २ गोत्रमें वेदनीयके समान भंग है । २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके नाना जीवोंकी अपेक्षा अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । अथवा २, ६, २, २ के अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं। नरक, मनुष्य, देवायुके किसी अपेक्षा सब अबन्धक हैं, स्यात् अनेक अबन्धक, एक बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक तथा अनेक बन्धक हैं । तिर्यंचायुके अनेक बन्धक और अनेक अन्धक हैं। चारों आयुके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं ।
१३१. काययोगी, औदारिक काययोगी, भव्यसिद्धिक, आहारकमार्गणा में इसी प्रकार १. विचयो विचारणा । केसि ? अस्थि णत्थि त्ति भंगाणं । की टीका ।
- खुदाबंध, पृ० २३७, सूत्र १
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