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________________ पयडिबंधाहियारो हुंडसंठाणं बं० पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त-सोलसक० भयदु० पंचंत. णियमा० । दोवेद० सत्तणोक० दोगोद० सिया० । सिया अबं० । एदेसिं एकदरं० ण चेव अबं०। तिण्णि आयु सिया० । णामाणं सत्थाणं भंगो । एवं [ असंपत्त० ] दूभग० अणादे० । ओरालि० अंगो० बजरिसह० ओरालियसरीरभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो । १२६. उज्जोवं बंधंतो हेठा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो। अप्पसत्थविहाय० बंधंतो हेहा उवरि जग्गोधभंगो। णवरि णिरयायु० सिया बं० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं दुस्सरं । जसंगितिं बंधतो पंचणा० चदुदंस० पंचंत० णियमा बं०। पंचदंसणा० मिच्छत्तं० सोलसक० भय-दुगुच्छा०-तिण्णिआयु० सिया बं० । सिया अबं० । सादं सिया बं०, सिया अबं० । असादं सिया बं० [सिया अबं०] हुण्डक संस्थानका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। दो वेदनीय, ७ नोकषाय, दो गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इनमें से एकतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है । नरक-मनुष्य तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षके समान भंग है। [असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन ] दुर्भग, अनादेयके बन्ध करनेवालोंके हुंडक संस्थानवत् भंग जानना चाहिए । औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहननके बन्ध करनेवाले औदारिक शरीर के समान भंग है। नामकर्मको प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए। १२६. उद्योतका बन्ध करनेवाले के-उपरितन अधस्तन प्रकृतियोंका तियं चगतिके समान भंग है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए । अप्रशस्त विहायोगति के बन्ध करनेवालेके उपरितन अधस्तन बँधनेवाली प्रकृतियोंका न्यग्रोधपरि. मण्डलसंस्थानके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, नरकायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियों में स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए । विशेषार्थ-अप्रशस्त विहायोगति तथा न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानका बन्ध सासादन गुणस्थान पर्यन्त होता है। इस कारण न्यग्रोधसंस्थानके समान अप्रशस्तविहायोगतिका वर्णन बताया है। इतना विशेष है कि नारकियोंमें न्यग्रोधसंस्थान नहीं है, किन्तु वहाँ दुर्गमनका सदभाव पाया जाता है। इस कारण दर्गमनके बन्धकके नरकायका भी बन्धकहा है। दुस्वर प्रकृतिका बन्ध करनेवालेके इसी प्रकार भंग है। यशःकीर्तिका बन्ध करनेवाला ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। विशेषार्थ-यद्यपि कषायोंका उदय सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान पर्यन्त होता है, किन्तु उनका बन्ध अनिवृत्तिकरण पर्यन्त होता है । अतः सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त बँधनेवाले यशःकीर्ति के बन्धकके कषायोंके बन्धका नियम नहीं है। इससे यहाँ ज्ञानावरणादिके साथ कषायोंका वर्णन नहीं हुआ है। दर्शनावरण ५ ( निद्रापंचक ), मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरकको छोड़ तीन आयुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। साताका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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