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पयडिबंधाहियारो २८७. असंजद० तिण्णि ले०-तिरिक्खोघं । णवरि अपच्चक्खाणा०४ अबंधगा णत्थि । तित्थय० बंधगा अस्थि ।
२८८. तेऊए-पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय-णिमि० पंचंत० बंधगा, ओदइगो भावो। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ अणंताणुबंधि०४ बंधगा० ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति उपसमि० खइ० खयोवस० । मिच्छत्त० ओघं । साद० बंधा-अबंधगा ति ओदइगो भावो। असाद बंध० ओदइगो भावो। अबंध० ओदइ० खयोवसमिगो वा ।. दोण्णं बंधा०
ओदइगो भावो । अबंधा णस्थि । एवं चदुणोक. थिरादि-तिण्णियुगल-इत्थि-णqस० बंधगा ओदइगो भावो । अबंधगा ओदइ० उवसमि० खइगो० खयोवस० । णवुस० पारिणामि० । पुरिसवे० बंधा अबं० ओदइगो भावो । तिण्णि बंधा० ओदइगो भावो। अबंधगा णत्थि । तिरिक्खायुबंधा० ओदइगो भावो । अबंधगा ओदइ० उवस० खइ०
२८७. असंयतों तथा कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें - तिर्यचोंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक नहीं है, किन्तु यहाँ तीर्थकरके बन्धक हैं।
विशेष-अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक देशसंयमी होते हैं उनका यहाँ अभाव है, कारण अशुभ-त्रिक लेश्या असंयतोंमें ही होती है।
२८८. तेजोलेश्यामें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, तैजसकार्मण, वर्ण ४; अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धक नहीं है।
विशेष-तेजोलेश्या अप्रमत्त संयतपर्यन्त पायी जाती है, अतः यहाँ ज्ञानावरणादिके अबन्धक नहीं पाये जाते हैं। ___ स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक है । मिथ्यात्वमें ओघके समान है। साता वेदनीयके बन्धकों, अबन्धकोंमें औदयिक भाव है ? असाताके बन्धकोंमें औदयिक भाव है। अबन्धकोंमें कौन भाव है ? औदयिक अथवा क्षायोपशमिक भाव है।
विशेष-असाताको बन्धव्युच्छित्तियुक्त अप्रमत्त गुणस्थानकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव है। असाताके अबन्धक.किन्त साताके बन्धककी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है।
— साता-असाता दोनोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धक नहीं हैं । इस प्रकार ४ नोकषाय, स्थिरादि ३ युगलमें जानना चाहिए। स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके औदयिक भाव है । अबन्धकोंके औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव है। विशेष यह है कि नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी है।
पुरुषवेदके बन्धकों, अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। तीनों वेदोंके बन्धकोंमें औदायिक भाव है । अबन्धक नहीं है। तियंचायुके बन्धकोंमें औदयिक भाव है।
१. "परिर वशुद्धिसंयताः प्रमत्ताप्रमत्ताश्च ।" -स० सि०,१२। २. "कृष्णनीलकापोतलेश्यासु मिथ्यादृष्टयादीसिम्यग्दृष्टयन्तानि सन्ति ।
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