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________________ पडबंधाहियारो ९३ ३७. पंचमण० पंचवचि०- पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलस० भयदुगुं० चदुआयु० तेजाकम्म० आहारदुग० वण्ण०४ अगु० उपघा० - णिमिणं तित्थय० पंचत० णत्थि अंत० | सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । कायजोगीसु-पंचणा० छदंसणा० ३७. पाँच मनोयोग, पाँच वचनयोग में - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ४ आयु, तैजस, कार्मण, आहारकद्विक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त हैं । मनोयोगी,वचनयोगी जीवोंके योगों के अन्तरपर खुद्दाबन्ध में यह कथन पाया जाता है, "जोगाणुवादेण पंचमणजोगि - पंचवचिजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं" - - सूत्र ५९-६० । योगमार्गणा के अनुसार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम अन्तर्मुहूर्त अन्तर है । महाबन्ध में जो ज्ञानावरणादि अन्तराय पर्यन्त प्रकृतियोंके सिवाय शेष प्रकृतियोंका अन्तर उक्त योगों में " जह० एग० " - जघन्यसे एक समय कहा है। उसका भाव यह है कि उक्त योगों में बँधनेवाली प्रकृतियोंके बन्धका बिरहकाल कमसे कम एक समय जानना चाहिए। क्षुद्रकबन्ध में सामान्य अपेक्षासे योगका अन्तर बताया है । एक योगसे अन्य योगको प्राप्त करने के पश्चात् पुनः पूर्वयोगको प्राप्त करने में मध्यवर्ती काल कमसे कम अन्तर्मुहूर्त होगा । धवलाटीका में यह शंकासमाधान आया है । शंका- इन पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंका एक योगसे दूसरेमें जाकर पुनः उसी योग में लौटनेपर एक समय प्रमाण अन्तर क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान - नहीं पाया जाता; क्योंकि जब एक मनोयोग या वचनयोगका विघात हो जाता है या विवक्षित योगवाले जीवका मरण हो जाता है, तब केवल एक समय के अन्तर से पुनः अनन्तर समय में उसी मनयोग या वचनयोगकी प्राप्ति नहीं हो सकती । उक्त योगोंका उत्कृष्ट अन्तरका काल असंख्यातपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । सूत्रकार भूतबलि स्वामी कहते हैं - " उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज-पोग्गल-परियट्ट” ( ६१ सूत्र ) । इसका स्पष्टीकरण धवला टीकामें इस प्रकार किया गया है - मनयोगसे वचन योग में जाकर वहाँ अधिक काल तक रहकर पुनः काययोगमें जाकर और वहाँ भी सबसे अधिक काल व्यतीत करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गल परिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः मनयोग में आये हुए जीवके उक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है। शेष चार मनयोगी पाँच वचनयोगी जीवोंका भी इसी प्रकार अन्तर प्ररूपित करना चाहिए, क्योंकि इस अपेक्षासे उनमें कोई विशेषता नहीं है । ( पृ० २०६ खु० बं० ) इस प्रकरण में खुदाधका यह कथन ध्यान देने योग्य है - "कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमत्रो, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त" सूत्र ६२, ६३, ६४ । काययोगी १. “जोगाणुवादेण—– पंचमणजोगि -- पंचवचिजोगीसु, कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टि • असजद सम्मादिट्टि -संजदासंजद - प्रमत्त- अप्पमत्तसंजद- सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? गाणेगजीवं पच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं । सामणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । चदुण्मुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुन्च णत्थि अंतरं निरंतरं । चदुन्हं खवगाणमोघं ।" - पटखं०, अंतरा०, सूत्र १५३, १५६- १५६ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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