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________________ ९४ महाबंधे सादासाद० चदुसंज० णवणोक० तिण्णिग०-पंचजादि-चदुसरी०-छसंठा०-दो अंगो०छसंघ० वण्ण०४ तिण्णि-आणु ० अगु०४ आदावुज्जो०-दोविहा० तसादि-दस-युगलणिमिणं तित्थय० णीचा. पंचत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त० बारसक० दोआयु० आहारदु० णथि अंत० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसवस्ससहस्साणि सादिरे..। मणुसा० ओघं० । मणुसगदितिगं ओघ । ओरालिय०पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगुं० दो आयु. आहारदुगं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं तित्थय० पंचंत० णत्थि अंत०। दो आयु० जह० अंतो०, उक्क ० सत्तवस्ससहस्सा० सादि० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । ओरालिमि०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलक० भयदुगुं० देवगदि०४ ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० तित्थ० पंचंत० णत्थि अंत० । दो आयु० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो०। वेउव्यियकायजो०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोल० भयदुगुं० ओरालिय० तेजा० वण्ण०४ अगुरु०४ बादर-पज्जत्त-पत्तेयणिमि० तित्थय. पंचंत० णथि अंत० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। इसपर वीरसेन स्वामीने इस प्रकार प्रकाश डाला है- काययोगसे मनयोग और वचनयोगमें क्रमशः जाकर और उन दोनों ही योगोंमें उनके सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर पुनः काययोगमें आये हुए जीवके अन्तमुहूर्त प्रमाण काययोगका अन्तर प्राप्त होता है।" जघन्य अन्तरके विषयमें धवलाटीकामें लिखा है, "काययोगसे मनयोगमें या वचनयोगमें जाकर एक समय रहकर दूसरे समयमें मरण करने या योगके व्याघातित होनेपर पुनः काययोगको प्राप्त हुए जीवके एक समयका जघन्य अन्तर पाया जाता है। ___ काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असाता, ४ संज्वलन, ६ नोकषाय, ३ गति, ५ जाति, ४ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, वर्ण ४, ३ आनुपूर्वी, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि १० युगल, निर्माण, तीर्थकर, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कषाय, देव - नरकायु और आहारद्विकका अन्तर नहीं है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक बाईस हजार वर्ष है । मनुष्यायुका ओघके समान है। मनुष्यगतित्रिकका भी ओघके समान है। औदारिक काययोगमें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, देव-नरकायु, आहार द्विक, तैजस, कार्मण , वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । दो आयुका जघन्य अन्तमुहूते, उत्कृष्ट साधिक सात हजार वर्ष है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । औदारिकमिश्र काययोगमें - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति चार, औदारिक, तैजस, कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। दो आयु अर्थात् मनुष्य-तियोचायुको जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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