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पडबंधाहियारो
चैव वेउव्वियमि० । णवरि दो आयु ० णत्थि । आहार० आहार मिस्स ० - पंचणा० छदसणा० चदुसंज० पुरिस० भयदुगुं० तेजाक० देवायु० देवगदि० पंचिंदि० वेउब्वि० समचदु० वेउच्चि अंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० अगुरु ०४ पसत्थवि० तस०४ सुभगसुस्सर-आदे० - णिमिणं तित्थयर० उच्चा० पंचंत० णत्थि अंत० । सादासा० चदुणोक०
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तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । औदारिक तथा औदारिक काययोगी जीवोंका अन्तर खुद्दाबन्धमें "जहणेण एकसमओ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि" (६५, ६६, ६७ सूत्र ) जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है । धवला टीका में कहा है
शंका- औदारिकमिश्र काययोगी तो अपर्याप्त अवस्था में होता है, जब कि जीवके मजयोग और वचनयोग होता ही नहीं है, अतः औदारिक मिश्र काययोगका एक समय अन्तर किस प्रकार हो सकता है ?
समाधान- नहीं, हो सकता है। औदारिक मिश्र काययोगसे एक विग्रह करके कार्माण काययोगमें एक समय रहकर दूसरे समयमें औदारिकमिश्र में आये हुए जीवके औदारिकमिश्र काययोगका एक समय अन्तर प्राप्त हो जाता है । औदारिक काययोगका उत्कृष्ट अन्तर इस प्रकार जानना चाहिए- औदारिक काययोगसे चार मनयोगों व चार वचनयोगों में परिणमित हो मरण कर तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँ अपनी स्थितिप्रमाण रहकर, पुनः दो विग्रह कर मनुष्य में उत्पन्न हो औदारिकमिश्र काययोगसहित दीर्घकाल रहकर पुनः औदारिक काययोग में आये हुए जीव के नौ अन्तर्मुहूर्ती व दो समयोंसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण औदारिक काययोगका अन्तर प्राप्त होता है ।
औदारिकमिश्र काययोगका अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि से अधिक तेतीस सागरो म होता है, क्योंकि नारकी जीवों में से निकलकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो औदारिकमिश्र काययोगको प्रारम्भ कर कमसे कम कालमें पर्याप्तियोंको पूर्ण कर औदारिक काययोग के द्वारा औदारिकमिश्र काययोगका अन्तर कर कुछ कम पूर्व कोटिकाल व्यतीत करके तेतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके औदारिकमिश्र काययोगमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है । (धवला टीका, खु०ब०, पृ० २०८ ) वैक्रियिक काययोगमें—५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थ कर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अन्तर है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगका समझना चाहिए । विशेष, यहाँ मनुष्य- तिर्यंचायु नहीं है । आहारक और आहारकमिश्रकाययोगमें ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण - शरीर, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच गोत्र और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । साता-असातावेदनीय, ४ नोकषाय, स्थिरादि
१. आहारक कायजोगि आहारक मिस्स कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुचं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देणं ७४, ७५, ७६ सूत्र, खु०ब०, पृ० २१० ।
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