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________________ ६२ महाबंधे इत्थिवे. अंतो० । इत्थि० [ जह० ] एगस० उक्क० बे छावद्विसागरो० सादिरे० देसू० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक० पुवकोडिदेसू० । णपुंस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दूभग-दुस्सर-अणादे० णीचा० जह० एग०, उक्क०ये छावट्ठि० सादिरे०, तिणि पलिदोव० देसू० । तिणि आयु० जह० अंतो०, उक० सागरोपमसदपु० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोपमसहस्साणि० पुवकोडिपुधत्तणवभदियाणि । पज्जत्ते सागरोपमसदपु० । तसेसु-तिण्णि-आयु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोपमसदपुध० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० बेसागरोवमसह पुव्वकोडिपु० । पजचे बेसागरोपम० देसू० । णिरयगदि चदुजादि-णिरयाणुपुब्धि-आदाव-थावरादि०४ जह० एग० उक्क० पंचासीदि-सागरोपमसदं। तिरिक्खगदि-तिरिक्खग०पाओ० उज्जोव. जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । मणुस० मणुसाणु० उच्चा० देवगदि०४ जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सांग० सादिरे० । ओरालि० ओरालि० अंगो वज्जरिसभसंघ० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरे । आहारदुग० जह• अंतो०, उक० सगहिदी० । बन्धी ४ और स्त्रीवेदका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। विशेप-स्त्रीवेदका [ जघन्य ] एक समय है तथा इन सबका साधिक दो छयासठ सागर में किंचित् न्यून उत्कृष्ट अन्तर है । आठ कपायका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है। नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक दो छयासठ सागर कुछ कम तीन पल्य प्रमाण है। तीन आयका जघन्य अन्तर्महत और उत्कृष्ट सागर शतपृथक्त्व है। मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सहस्रसागरोपम पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक है। पर्याप्तकोंमें सागर शतपृथक्त्व है। बसोंमें-तीन आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सागरोपम शतपृथक्त्व अन्तर है। मनुष्यायुका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे दो हजार सागरोपम पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक है । पर्याप्तकोंमें दो हजार सागरोपममें कुछ कम अन्तर है।' नरकगति, ४ जाति, नरकानुपूर्वी, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एकसौ पचासी सागरोपम है। तिर्यंचगति, तियंचानुपूर्वी और उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एकसौ सठ सागरोपम है। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र, देवगतिचतुष्कका जवन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वनवृषभ संहननका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य अन्तर हे । आहारकद्विकका जघन्य अन्तमुहूते, उत्कृष्ट अपनी स्थिति प्रमाण अन्तर है। (१) "तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसुसासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छादिट्टणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमहत्त, उक्कस्सेण बे सागरोवमसहस्साणि पुनकोडि--पुधत्तेणब्भहियाणि बे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि, असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जोव अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवनिरं कालादो होदि ? एग जीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहत्तं, उक्कसण वे सागरोवमसहस्साणि पुत्रकोडिपुवत्तणह्यिाणि, बे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ।"- पखं०, अंतरा०, सूत्र १३६-१४५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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