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पडबंधाहियारो
स्वाणि सादरेयाणि । विगलिंदियेसु एइंदियभंगो | णवरि मणु देतिगं सादभंगो । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बारसवस्ससहस्त्राणि ( बारसवस्साणि) एगूणवण्णं रादिदियाणि छम्मासाणि सादिरे० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० चत्तारि वस्साणि देसू०, सोलस रार्दि० सादिरे०, बे मासाणि देसू० ।
३६. पंचिंदिय-तस-तेसिं चेव पञ्जत्ता० पंचणा० छदंसणा० सादासा० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० तस०४ थिरादिदोणियुग ० - सुभग- सुस्सर-आदेज- णिमिणं तित्थयं० पंचंत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि णिद्दापचलाणं जहण्णु ० अंतो० | थीणगिद्धि ३ मिच्छ० अणंताणु०४
उत्कृष्ट अन्तरको इन सूत्रों द्वारा कहा गया है - "बीइंदिय-ती इंदिय च उरिदिय-पंचिदियाणं तस्सेव पजत्त श्रपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज पोग्गलपरियट्टं ॥ ४४, ४५ ४६ ॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक अन्तर होता है, उत्कृष्टसे अनन्तकाल, असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है । इस सम्बन्ध में वीरसेन स्वामीका कथन है कि विवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवों में से निकलकर अविवक्षित एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गल परिवर्तनरूप भ्रमण करने से कोई विरोध नहीं आता ( खु० नं० पृ० २०१-२०२ ) ।
विकलत्रयमें एकेन्द्रियके समान अन्तर है । यहाँ इतना विशेष है कि मनुष्यगतित्रिकका साताके समान भंग है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक बारह वर्ष, साधिक उनचास रात्रि-दिन, साधिक छह मास अन्तर है' । मनुष्यायुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन चार वर्ष, कुछ अधिक सोलह रात्रि-दिन तथा कुछ कम दो माह अन्तर है ।
३६. पंचेन्द्रिय, सकाय तथा उनके पर्याप्तकों में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता, असातावेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मणः, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । विशेष, निद्रा, प्रचलाका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानु
१. "द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टा स्थितिर्द्वादशवर्षाः, त्रीन्द्रियाणां एकान्नपञ्चाशद्वात्रिंदिवानि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः |" - त० रा० पृ० १४६ ।
२. "पंचिदिय पंचिदियपज्जत्तएसु सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीण मंतरं केव चिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेजादिभागो, अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण सागरोत्रमसहस्वाणि पुव कोडिते महियाणि सागरोवमसदपुत्तं । असंजदसम्मादिट्टिप्पहूडि जात्र अपमत्तमंजदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्व जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्माणि पुव्वको डिपुधतेव्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्त ।" पटखं०, अंतरा, सूत्र ११४- १२१ |
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