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________________ महाबंधे उक्क० अंतो० । एवं पुढ० आउ० वणप्फदिका०-बादरवणप्फदि-पत्तेय-णियोदाणं च अप्पप्पणो-योगेहि० । णवरि मणुसगदितिगं सादभंगो। तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि, सत्त वस्ससहस्साणि, दस वस्ससहस्साणि सादि० । णियोदाणं अंतो० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सत्त वस्ससहस्साणि, बे वस्ससहस्साणि तिणि वस्ससहस्साणि सादि० । णियोदाणं जहण्णु० अंतो० । तेउ० वाउ० एइंदियभंगो। णवरि मणुसगदिचदुक्कं वजं । तिरिक्खगदितिगं धुवभंगो कादम्वो। तिरिक्खायुगं जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि रादिंदियाणि, तिण्णि वस्ससह पृथ्वीकाय, अकाय, वनस्पतिकाय, बादर वनस्पति, प्रत्येक तथा निगोद जीवोंका अपने-अपने योग्य अन्तर जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्यगति-त्रिकमें साताके समान भंग जानना चाहिए । तिगंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट साधिक बाईस हजार वर्ष, साधिक सात हजारवर्ष, साधिक दस हजार वर्ष तथा निगोदियोंमें अन्तर्मुहूते अन्तर है। विशेष—खर पृथ्वीकायिकोंमें बाईस हजार, अप्कायिकोंमें सात हजार, वनस्पतिकायिकोंमें दस हजार और निगोदिया जीवोंकी अन्त मुहूर्त आयुको लक्ष्य में रखकर तिर्यंचायुका अन्तर कहा गया है। मनुष्यायुका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक सात हजार वर्प, साधिक दो हजार वर्ष और साधिक तीन हजार वर्प है। निगोदियोंका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तेजकाय, वायुकायमें एकेन्द्रियके समान अन्तर जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यगतिचतुष्कको नहीं ग्रहण करना चाहिए। यहाँ तिर्यंचगति त्रिकका ध्रुव भंग जानना चाहिए। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तीन रात्रि-दिन और साधिक तीन हजार वर्ष अन्तर है । विशेषार्थ-खुद्दाबन्धमें एकेन्द्रियोंका अन्तर 'जहाणेण खुद्दाभवग्गहणं'-जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण काल प्रमाण है । "उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तणन्भहियाणि" ( सूत्र ३७, टीका,पृ० १९८ ) उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरो. पम एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर है। इसपर धवला टीकामें इस प्रकार प्रकाश डाला गया है : एकेन्द्रिय जीवों में से निकलकर केवल बसकायिक जीवों में ही भ्रमण करनेवाले जीवके पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपममात्र स्थितिसे ऊपर त्रसकायिकोंमें रहनेका अभाव है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस कालके व्यतीत होनेपर जीवको एकेन्द्रिय पर्याय धारण करनी पड़ेगी। एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलकर यह जीव पुनः त्रसपर्यायको प्राप्त कर सकता है, किन्तु एकेन्द्रिय पर्यायमें पहुँचनेके पश्चात् त्रसपर्यायको प्राप्त करना शास्त्रकारोंने अत्यन्त कठिन बताया है। यदि जीवका संसार परिभ्रमण निकट आ चुका है, तो वह क्षुद्रभवग्रहण कालके पश्चात् पुनः सपर्यायको प्राप्त कर सकता है। द्वीन्द्रियादिके जघन्य १. "तत्र पृथ्वीकायिकाः द्विविधाः, शुद्धपृथ्वीकायिकाः खरपृथ्वीकायिकाश्चेति । तत्र शुद्धपृथ्वीकायिकानामुत्कृष्टा स्थितिर्वादशवर्षसहस्राणि । खरपृथ्वीकायिकानां द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि । वनस्पतिकायिकानां दशवर्षसहस्राणि । अप्कायिकानां सप्तसहस्राणि, वायुकायिकानां त्रीणि वर्षसहस्राणि । तेजःकायिकानां त्रीणि रात्रिंदिवानि ।" - त०रा०,पृ० १४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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