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________________ बंधाया ३५. एइंदिए - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं० सोलस० भयदुगुं० ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंत० णत्थि अंत० । सादासाद - सत्तणोक० तिरिक्खगदि - पंचजादि० छस्संठा० ओरालिय० अंगोवं०- छस्संघ० तिरिक्खाणु ० परधादुस्सासं आदावुजो० दोविहाय० तसादि दसयुगलं णीचा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसवस्ससहस्साणि सादिरे० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सत्तवस्ससहस्साणि सादि० । मणुसगदि मणुसाणु ० उच्चागो० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । बादरेसु अंगुलस्स असंखे० । बादरपज्जते ० संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । हुमे अंसंखेज्जा लोगा । सुहुम पत्ते जह० एग०, ८९ आनत-प्राणत कल्पवासी ( आणद- पाणद-मिच्छा इट्ठिस्स) मिथ्यादृष्टि देवके मासपृथक्त्वमात्र मनुष्यायु बाँधकर फिर मनुष्यों में उत्पन्न हो मास पृथक्त्व जीवित रहकर पुनः अन्तर्मुहूर्त मात्र आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचसम्मूर्छन पर्याप्त जीवों में उत्पन्न होकर संयमासंयम ग्रहण कर के आनतादि कल्पों की आयु बाँधकर वहाँ उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त मास-पृथक्त्व प्रमाण जघन्य अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए । I नवप्रैवेयक विमानवासियों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर " उक्करसेण अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गल परिय ||२६|| " अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप है । अनुदिशादि अपराजित पर्यन्त विमानवासियों का जघन्य अन्तर 'जहग्णेव वासपुधत्तं ॥ ३१ ॥ कहा है । "उक्कस्सेण वे सागरोवमाणि सादिरेयाणि” ॥ ३२ ॥ उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है । इस विषय में धवलाटीका में इस प्रकार खुलासा किया गया है - अनुदिशादि देव के पूर्व कोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर एक पूर्व कोटि तक जीकर सौधर्म - ईशान स्वर्गको जाकर वहाँ अढ़ाई सागरोपमकाल व्यतीत कर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर संयमको ग्रहण कर अपने-अपने विमानमें उत्पन्न होनेपर उनका अन्तरकाल साविक दो सागरोपम प्रमाण प्राप्त होता है । (पृष्ठ १६७ ) सर्वार्थसिद्धि से चयकर एक ही भवमें मुक्ति होती है, अतः वहाँ अन्तरका अभाव सूचक यह सूत्र कहा है - " सव्वट्टसिद्धि-विमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अन्तरं निरंतरं " ||३४|| खु०, पृ० १९७॥ ३५. एकेन्द्रियोंमें – ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक- तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायों का अन्तर नहीं है । साता असातावेदनीय, ७ नोकपाय, तिर्यंचगति, पंच जाति, ६ संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, ६ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दसयुगल और नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष कुछ अधिक अन्तर है | मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक ७ हजार वर्ष है। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है । बादरों में अंगुलका असंख्यातवाँ भाग अन्तर है । बादर पर्याप्तक में संख्यात हजार वर्ष है । सूक्ष्म में असंख्यात • लोक है । सूक्ष्मपर्याप्तक में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । Jain Education Inter Ronal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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