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महाघे
परिभ्रमण कर पुनः देवगतिमें आगमन करनेमें कोई विरोध नहीं आता" ( पृ० १९१ ) । भवनत्रिक तथा सौधर्य ईशान स्वर्गो में पूर्वोक्त अन्तर है । सनत्कुमारादिमें इस प्रकार अन्तर कहा है: 'सणक्कुमार- माहिंदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण मुहुत्तपुधत्तं । उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गल परिय” । इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला टीकाकार कहते है; "तिर्यंचया मनुष्यायुको बाँधनेवाले सनत्कुमार माहेन्द्र देवोंके तिर्यंच व मनुष्य मत सम्बन्धी जघन्य स्थितिका प्रमाण मुहूर्त-पृथक्त्व पाया जाता है । इसी मुहूर्त-पृथक्त्व प्रमाण जघन्य तिर्यंच व मनुष्यायुको बाँधकर तिर्यंचों वा मनुष्यों में उत्पन्न होकर परिणामोंके निमित्तसे पुनः सनत्कुमार- माहेन्द्र देवोंकी आयु बाँधकर सनत्कुमार- माहेन्द्र देवों में उत्पन्न हुए traint मुहूर्त पृथक्त्वप्रमाण जघन्य अन्तर होता है, ऐसा सूत्र द्वारा बतलाया गया है ।
आगेका सूत्र इस प्रकार है : 'बम्ह-बम्हुत्तर-लांत व का विट्ठ-कष्पवासिय देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दिवसपुधत्तं ।' सूत्र १८, १६
शंका - दिवस पृथक्त्वकी आयुमें तो तिर्यंच व मनुष्य गर्भसे भी नहीं निकल पाते और इसलिए उनमें अणुत्रत व महाव्रत भी नहीं हो सकते। ऐसी अवस्था में वे दिवस पृथक्त्वमात्रकी आयु के पश्चात् पुनः देवोंमें कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ।
समाधान - परिणामोंके निमित्तसे दिवस- पृथक्त्वमात्र जीवित रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्त जीवोंके देवोंमें उत्पन्न होने में कोई विरोध नही आता ।
शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार स्वर्गवासी देवोंका देवगति से जघन्य अन्तर " जहणेण पक्खपुधत्तं" - पक्षपृथक्त्व कहा है। आनतादिका जघन्य अन्तरंवाला सूत्र इस प्रकार है"आणद-पाणद आरण-अच्चुकप्पवासिय देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण मासपुधन्तं" - सूत्र २४-२५ । इसपर भाष्यकार महत्त्वपूर्ण शंका उत्पन्न कर समाधान भी करते हैं।
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शंका- जब आनत आदि चार कल्पवासी देव मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, तब मनुष्य होकर भी वे गर्भसे आठ वर्ष व्यतीत हो जानेपर अणुव्रत व महाव्रतोंको ग्रहण करते हैं । अणुव्रतों व महाव्रतोंको ग्रहण न करनेवाले मनुष्योंकी आनतादि देवोंमें उत्पत्ति ही नहीं होती; क्योंकि वैसा उपदेश नहीं पाया जाता । अतएव आनत आदि चार देवोंका मास पृथक्त्व अन्तर कहना युक्त नहीं है । उनका अन्तर वर्ष पृथक्त्व होना चाहिये ?
समाधान - शंकाका समाधान इस प्रकार है - अणुव्रत व महाव्रतोंसे संयुक्त ही तिर्यंच व मनुष्य (तिरिक्ख मणुस्सा ) आनत - प्रानत देवोंमें उत्पन्न हों, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो तिर्यंच असंयत- सम्यग्दृष्टि जीवोंका जो छह राजू स्पर्शन बतलानेवाला सूत्र है, उससे विरोध उत्पन्न हो जायेगा। (देखो, षटूखंडागम, जीवट्ठाण, स्पर्शानुगम सूत्र: २८ पुस्तक ४, पृ० २०७ )
आनत-प्राणत कल्पवासी असंयतसम्यग्दृष्टिदेव जब मनुष्यायुकी जघन्य स्थिति बाँध हैं, तब वे वर्ष पृथक्त्वसे कमकी आयु-स्थिति नहीं बाँधते है, क्योंकि महाबन्ध में जघन्यस्थितिबन्धके कालविभाग में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी आयुस्थितिका प्रमाण वर्ष पृथक्त्वमात्र प्ररूपित किया गया है । सोधम्मीसाणे श्रायु० जह० ट्ठिदि० अंतो०, अंतोमु० श्राबा० | सणक्कुमारमाहिंदे मुहुत्त-पुधत्तं बम्ह-बम्हुत्तर-लांतव-काविट्ठ० दिवसपुधत्तं । सुक्क-महासुक्क-सदार सहस्सारः कप० पक्खपुधत्तं, प्राणद- पाणदं आरणच्चुद० मासपुधत्तं, उवरि सत्त्राणं वासपुधत्तं । सव्वत्थ अंतो० भाबा० ॥ आभिणि० सुद ओधिखवगपगदीणं ओघं । मणुसायु० जह० ट्ठिदि० वासपुध०, अंतो०, श्राबा० । महाबन्ध ताम्रपत्रप्रति, स्थिति बन्धाधिकार, पृ० ७२ ८० । अतः
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