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महाबंधे
१०२ अणंतकालं असंखे। तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जोव० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सादि० । मणुसगदितिगं ओघ । चदुजादि० आदाव-थावरादि०४ जह० एगस०, उक्क० एकतीसं सादि०। एवं अन्भवसिद्धियमिच्छादिढि०। विभंगेपंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदुगु० णिरय० देवायु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उपधा० णिमि० पंचंत० णत्थि अंत० । दोआयु० देवोओघं । सेसाणं० जह० एग०, उक्क० अंतो। आभि० सुद० ओधि०-पंचणा० छदंस० चदुसंज० सादासा० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाकम्म० समचतु० वण्ण०४ अगुरु०४ पसत्थवि०
समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। तिर्यंच गति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर है। मनुष्यगतित्रिकमें ओघकी तरह जानना चाहिए । ४ जाति, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर है । अभव्यसिद्वि कमिथ्याइष्टिका भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मति अज्ञानी, श्रुताज्ञानी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसका स्पष्टीकरण धवला टोकामें इस प्रकार किया गया है : "मति अज्ञान तथा श्रुताज्ञानसे सम्यक्त्व ग्रहण कर मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें आकर कमसे कम कालका अन्तर देकर पुनः मति अज्ञान, श्रुताज्ञान भावमें गये हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है।
उक्त अज्ञानी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर “उक्कस्सेण बेछाटि-सागरोपमाणि" (९९) दो. छ्यासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोफ्मकाल है। इसपर वीरसेन स्वामीने इस प्रकार प्रकाश डाला है : किसी कुमति-कुश्रुतज्ञानी जीवके सम्यक्त्वग्रहण करके कुछ कम छ्यासठ सागरोपमकाल प्रमाण सम्यक्ज्ञानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्व-मिथ्यात्वको जाकर मिश्रज्ञानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्वग्रहण करके कुछ कम छयासठ सागरोपमप्रमाण परिभ्रमण कर मिथ्यात्वको जानेसे दो छयासठ सागरोपम प्रमाण मतिश्रुत-अज्ञानोंका अन्तरकाल पाया जाता है।
शंका-दो छयासठ सागरोपमोंमें जो कुछ कम काल बतलाया है उसका क्या हेतु है ?
समाधान-इसका कारण यह है कि उपशम सम्यक्त्व कालसे दो छयासठ सागरोपमोंके भीतर मिथ्यात्वका अधिक काल पाया जाता है (जीवट्ठाण, अंतराणुगम सूत्र,४ की टीका)। सम्यग्मियादृष्टिज्ञानको मतिश्रुत अज्ञान रूप मानकर कितने ही आचार्य उपयुक्त अन्तरप्ररूपणामें सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर नहीं दिलाते, पर यह बात घटित नहीं होती; क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वभावके अधीन हुआ ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वके समान एक अन्य जातिका बन जाता है। अतः उस ज्ञानको कुमति कुश्रुत रूप मानने में विरोध आता है।
विभंगावधिमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरक, देवायु, तेजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। दो आयुका देवोंके ओघवत् जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तमुहत है।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, साता-असाता वेदनीय, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान,
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