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________________ पंयडिबंधाहियारो १०३ तस०४ थिरादि-दोणियुग सुभग-सुस्सर-आदे० णिमितित्थय० उच्चा०पंचंत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिदेसू० । दोआयु० देवग०४ जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं० सादि० । मणुसगदिपंचगं जह० वासपुध०, उक्क० पुवकोडि० । आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० छावट्ठिसा० सादिरे । एवं ओधिदं० सम्मादिहित्ति ।। मणपज्जवणा०-पंचणा० छदंस० चदुसंज० पुरिस० भयदु० देवगदि-पंचिंदि० चदुसरीर० समचदु० दोअंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० अगुरु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमिण-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सादासा०चदुणोक० थिरादितिण्णियु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । देवायु० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । वर्ण ४, अगुरुलघु४, प्रशस्त विहायोगति, स४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका बन्धक जीव उपशमश्रेणीका आरोहण कर जब उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पहुँचा, तब इन ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका बन्ध रुक गया। बादमें जैसे ही वह जीव नीचे गिरा कि इनका बन्ध पुनः प्रारम्भ हो गया। इस दृष्टिसे इन ज्ञानोंमें बन्धका अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण कहा गया है। आठ कषायोंका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटि है। विशेषार्थ-एक मनुष्यने. अविरत दशामें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरणरूप कषायाष्टकका बन्ध किया। आठ वर्षकी अवस्थाके अनन्तर सम्यक्त्व तथा महाव्रतको एक साथ धारण कर एक पूर्व कोटिसे अवशिष्ट बची आयु प्रमाण महाव्रती रह मरणकालमें असंयमी बन पुनः ८ कषायोंका बन्ध किया। इस प्रकार देशोन पूर्व कोटि अन्तर होता है। दो आयु, देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक ३३ सागर है । मनुष्य गसिपंचकका जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक ६६ सागर है। अवधिदर्शन तथा सम्यक्त्वमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, ४ शरीर, समचतुरस्र संस्थान, दो अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-कोई मनःपर्ययज्ञानी उपझमश्रेणी चढ़कर उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पहुँचा, तब अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका अबन्ध हो गया। पश्चात् वह सूक्ष्मसाम्परायादि गुणस्थानों में उतरा, तो पुन: उन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो गया । इस प्रकार यहाँ अन्तर जघन्य, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण कहा है। साता-असातावेदनीय, ४ नोकषाय, स्थिरादि ३ युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अन्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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