SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ महाबंधे ४१. एवं संजद० । एवं चेव सामाइ० छेदो० परिहार० संजदासंजदा० । णवरि धुविगाणं णत्थि अंत० । सुहुमसंप० सव्यपगदीणं णत्थि अंत० । असंजदे धुविगाणं णत्थि अंत० । थीण०३ मिच्छ० अर्णताणु०४ इत्थि० णपुंस० तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० अप्पसत्थ० उजो० भग-दुस्स०-अणादे० णीचागो० जह० एग० उक्क० तेत्तीसं० देसू० णवरि थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । चदुआयु० वेउब्धियछक्क० मणुसगदितिगं च ओघं । एइंदिय-दंडओ तित्थयरं च णपुंसकवेदभंगो । चक्खुदंस० तसपञ्जत्तभंगो । अबक्खुदं० ओघं। . विशेषार्थ-कोई एक कोटिपूर्वकी आयुवाला जीव मनःपर्ययज्ञानी हुआ। आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर देवायुका प्रथम अन्त मुहूर्त में बन्ध किया। इसके अनन्तर मरणकाल आनेपर पुनः आयुका बन्ध किया। इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग देवायुका अन्तर होगा। विशेषार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्योंकि मति, श्रुत, और अवधिज्ञानी देव या नारकी जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त कर मति-अज्ञान, श्रुताज्ञान, व विभंगज्ञानके द्वारा अन्तर करके पुनः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञानमें आनेपर उक्त ज्ञानोंका अन्तमुहतेप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानीका भी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। यहाँ विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानी संयत जीव मनःपर्ययज्ञानको नष्ट करके अन्तर्महतं काल तक उस ज्ञानके बिना रहकर फिर उसी मनःपर्ययज्ञानमें लाया जाना चाहिए। (धवलाटीका,खु० बं०, पृ० २२०) ४१. संयममें भी इसी प्रकार है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा संयतासंयतोंमें भी इस प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंमें अन्तर नहीं है। सूक्ष्मसाम्परायमें-सर्व प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है। असंयतमें-ध्रुव प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, तियंचगति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तियचानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, उद्योत, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर है। विशेषार्थ-कोई मनुष्य या तिथंच मोहनीयको २८ प्रकृतियोंको सत्तावाला मरणकर सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर,(१) विश्राम ले,(२) विशुद्ध हो,वेदकसम्यक्त्वी हआ (३) उस समय मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंका बन्ध रुका। इस प्रकारकी अवस्था आयके अल्पकाल अवशेष रहने तक रही। पश्चात् वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हआ (४) इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः तियाँच आयुका बन्ध कर (५) विश्राम ले निकला। इस प्रकार ६ अन्तमहूर्त कम ३३ सागर प्रमाण मिथ्यात्वादिका बन्ध नहीं होनेसे उतना अन्तर रहा । (ध० टी० अन्तरा० पृ० १३४) विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार आयु वैक्रियिक षटक, मनुष्यगतित्रिकका ओघवत् जानना चाहिए। एकेन्द्रिय दण्डक तथा तीर्थकरका नपुंसकवेदके समान भंग जानना चाहिए। चश्मदर्शनमेंत्रस पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए । अचक्षुदशेनमें-ओघवत् अन्तर जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy