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________________ पयडिबंधाहियारो १०५ ४२. किण्णाए-पंचणा. छदंसणा० बारसक० भयदु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० तित्थ०-पंचंत० दो-आयु० णत्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । इत्थि० णपुंसक० दोगदि० पंचसंठा० पंचसंघ० दोआणु० उज्जो० अप्पसत्थ० भग-दुस्स० अणादे० णीचुचागो० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० दे। दोआयुगस्स णिरयभंगो। वेउव्विय० वेउव्विय अंगो० जह० एग०, उक्क० बावीसं सा० (१) । सेसाणं जह० एग०, उक्क अंतो०।। ४३. एवं णील-काऊणं' । णवरि मणुसगदितिगं सादभंगो । वेउवि० वेउवि०अंगो० जह० एग०, उक० सत्तारस-सत्तसागरो० । ___ खुद्दाबन्धमें चक्षुदर्शनी जीवोंका जघन्य अन्तर "जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं" ( सूत्र ११६) क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है। इसपर धवलाटीकाकार इस प्रकार प्रकाश डालते हैं जो चक्षुदर्शनी जीव क्षुद्रभवग्रहण मात्र आयुःस्थिति वाले किसी भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, व त्रीन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तकोंमें अचक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है और क्षुद्रभवग्रहण मात्र काल चक्षुदर्शनका अन्तर कर पुनः चतुरिन्द्रियादिक जीवोंमें चक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है, उस जीवके चक्षुदर्शनका क्षुद्रभवग्रहण मात्र अन्तरकाल पाया जाता है। चक्षुदर्शनीका उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियदृ" ( १२० सूत्र ) असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है। - अचक्षुदर्शनी जीवोंके विषयमें ‘णत्थि अंतरं णिरंतरं' (सूत्र १२२ ) अन्तर नहीं है, वे निरन्तर होते हैं। अचक्षुदर्शनीका अन्तर केवलदर्शनी होनेपर हो सकता है, किन्तु केवलदर्शनी होनेपर अचक्षुदर्शनकी उत्पत्तिका अभाव है। क्षायिक दर्शनके होनेपर क्षायोपशमिक दर्शनका अभाव हो जाता है। ४२. कृष्णलेश्यामें-५ ज्ञान्यवरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर, ५ अन्तराय तथा २ आयुका अन्तर नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धो ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त है [ उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर अन्तर है ] । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, २ गति, ५ संस्थान, ५ संहनन, २ आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर है। दो आयुका नरकगतिके समान भंग जानना चाहिए । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक अंगोपांगका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट २२ सागर जानना चाहिए। शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महत है। ४३. इसी प्रकार नील तथा कापोत लेश्यामें जानना चाहिए। विशेष, मनुष्यगतित्रिकमें सातावेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट सत्रह सागर तथा सात सागर अन्तर है।' १. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णोललेस्सिय-काउलेस्सियाणमन्तरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ तेउलेस्सियं-पम्मलेस्सिय-सूक्कलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुतं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्ट।। --खुद्दाबंध, सूत्र १२५-१३० । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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