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महाबंध
४४. ते उ०- पंचणा० छदंसणा० बारसक० भयदु० ओरालिय० आहारतेजाकम्म० आहार० - अंगो० वण्ण ०४ अगु०४ बादर-पजत्त- पत्तेय- णिमि० - तित्थय० - पंचंत ० णत्थि अंत० | थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । इत्थि० णपुंस० तिरिक्खगदि० एइंदि० पंचसंठाण० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदावुञ्जो० अप्पसत्थ० दुर्भाग- दुस्सर अणादे० णीचा० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । सादासादपंचणोक० मणुस० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० वज्ररिस० मणुसाणु० पसत्थ० तस० थिरादिदोणियु० - सुभग-सुस्सर-आदेज्ज० उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो । तिरिक्ख- मणुसा० देवोघं । देवायुगं णत्थि अंतरं । देवगदि०४ जह० दसवस्ससह ० अथवा पलिदो०- सादि० । उक्क० बेसागरो० सादि० ।
४५. पम्माए - पंचणा० छदंसणा बारसक० भयदु० पंचिंदिय० चदुसरी०ओरालियअंगो० आहारस० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं तित्थय० पंचत ० णत्थि अंत० । सेसं ते उभंगो। णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । एइंदिय-आदाव थावरं
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विशेषार्थ - कृष्णलेश्या के समान नील तथा कापोतलेश्यायुक्त दो जीवोंने वैक्रियिक शरीर तथा वैक्रियिक अंगोपांगका बन्ध करके मरण किया और क्रमशः पाँचवें तथा तीसरे नरक में जन्म धारण किया । वहाँ सत्रह सागर तथा सात सागरपर्यन्त उक्त दोनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हो सका । पश्चात् मरण कर वे मनुष्य हुए, जहाँ उन प्रकृतियोंका पुनः बन्ध हो सका। इस प्रकार सत्रह तथा सात सागर प्रमाण अन्तर सिद्ध हुआ ।
४४. तेजोलेश्या में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर, आहारक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थंकर तथा ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त [ और उत्कृष्ट साधिक दो सागर ] है |
विशेषार्थ - तेजोलेश्यावाले किसी मिथ्यात्वी जीवने सौधर्मद्विकमें उत्पन्न हो साधिक दो सागर प्रमाण स्थिति प्राप्त की । वहाँ छहों पर्याप्त पूर्ण कर विश्राम ले, विशुद्ध हो, सम्यको ग्रहण कर आयुके अन्त में मिथ्यात्वी हो मरण किया। उसकी अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व आदिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागरोपम कहा है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक दो सागर है । साता असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यंचायु-मनुष्यायुका देवोंके ओघ समान है। देवायुका अन्तर नहीं है । देवगति ४ का जघन्य दस हजार वर्ष अथवा साधिक पल्यप्रमाण है । उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर हैं ।
४५. पद्मलेश्यामें-५ ज्ञानावरण ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, चार शरीर, औदारिक अंगोपांग, आहारकशरीर, अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, ४, निर्माण, तीर्थंकर तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंका अन्तर नहीं है । शेषका तेजोलेश्या
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