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________________ पयडिबंधाहियारो १०७ णस्थि । देवगदि०४ जह० बेसाग० सादि०, उक्क० अट्ठारस० सादिरे०।। ४६. सुक्काए-पंचणा० छदंसणा० सादासाद० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिं-- दि० तेजाकम्म० समचदु. वज्जरिस० वण्ण०४ अगुरु०४ पसस्थवि. तस०४ थिरादिदोणियु०-सुभग-सुस्स०-आदे० णिमि० तित्थय० उच्चा०-पंचंत० जह० एगस०, उक्क० अंतो० । णवरि णिदा-पचला ओघं। थीणगिद्धि०३ मिच्छ. अणंताणु०४ जह० अंतो० । इथि० णपुंस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दूभा-दुस्सर-अणादे० णीचा० जह• एगस०, उक्क० एक्कात्तीसं देसू० । अट्ठक० देवायु० मणुसग० ओरालिय० ओरालियअंगो० मणुसाणु० णत्थि अंतरं० । मणुसायु० देवोघं । देवगदि०४ जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । आहारदुगं जहण्णु० अंतो० । भवसिद्धिया ओघं। के समान भंग जानना चाहिए। विशेष यह है कि अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण अन्तर ग्रहण करना चाहिए । यहाँ एकेन्द्रिय, आताप तथा स्थावरका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, आताप तथा स्थावरका बन्ध सौधमेद्रिक पर्यन्त होता है। वहाँ पीतलेश्या पायी जाती है । पद्मलेश्यामें इनका बन्ध नहीं है, अतः अन्तर नहीं कहा है। देवगति ४ का जघन्य अन्तर साधिक दो सागर तथा उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है। विशेषार्थ-पद्मलेश्यावाले देवोंकी जघन्य स्थिति साधिक दोसागर है और उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है । इनके देवगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होगा। इस अपेक्षा परोक्त अन्तर कहा है। ४६. शुक्ललेश्यामें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असातावेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभ-संहनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा पंच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । विशेष-निद्रा-प्रचलाका ओघवत् जघन्य, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अन्तर है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तमहते है । [उत्कृष्ट कुछ कम इकतीस सागर है।] विशेषार्थ-शुक्ललेश्यावाला द्रव्यलिंगी जीव ३१ सागरोंकी स्थिति वाले अन्तिम प्रैवे. यकमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर, विश्राम ले, विशुद्ध हो, सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। आयुके अन्त में पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त कर मरण किया। इस प्रकार देशोन ३१ सागर प्रमाण मिथ्यात्वीका उत्कृष्ट अन्तर हुआ। इस अपेक्षा मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदिका अन्तर उतना ही कहा गया है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३१ सागर है । आठ कषाय, देवायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यानुपूर्वीका अन्तर नहीं है। मनुव्यायुका देवोंके ओघ समान है । देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । आहारकद्विकका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । भव्य सिद्धि कोंमें-ओघवत् जानना चाहिए । १. भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ --खुद्दाबंध सूत्र,१६१-१३२ ,पृ. २३० कुदो ? भवियाणमभवियाणं च अण्णोण्णसरूवेण परिणामाभावादो । -खुद्दाबंध टीका पृ० २३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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