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________________ महाबंध ४७. खड्ग सम्मादिट्टि धुविगाणं अट्ठकसायाणं च अधिभंगो | मणुसायु देवोघं । देवायु० जह० अंतो०', उक्क० पुव्त्रकोडितिभागं देसू० | मणुसगदिपंचगं णत्थि अंत | देवदि०४ आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । सादादीणं ओधिभंगो । १०८ ४८. वेदगे विगाणं तित्थयरस्स च णत्थि अंत० । अट्ठक० दोआयु० मणुसगदिपंचगं अधिभंगो | देवगदि ०४ जह० पलिदोप० सादि०, उक्क० तेत्तीसं सा० । आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० छावद्विसागरो० देखणा, अथवा तेत्तीसं सादिरे० । साणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । ४६. उवसम० - पंचणा० चदुदंस० सादासाद० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोण्णियु० ४७. क्षायिकसम्यक्त्वमें ध्रुव प्रकृति तथा आठ कपायोंका अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। मनुष्यायुका देवोंके ओघ समान है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटिका त्रिभाग है । विशेषार्थ -- कोई क्षायिकसम्यक्त्वी जीव एक कोटिपूर्वकी आयुवाला मनुष्य उत्पन्न हुआ। आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर उसने आगामी देवायुका बन्ध किया और आयुके पूर्ण होनेके पूर्व पुनः उसी आयुका बन्ध किया । इस प्रकार कुछ कम एक कोटि पूर्वका विभाग देवायुका अन्तर रहा । मनुष्यगतिपंचक में अन्तर नहीं है । देवगति ४, आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । सातादि प्रकृतियोंका अवधिज्ञान के समान भंग जानना चाहिए । ४८. वेदकसम्यक्त्व में ध्रुव प्रकृतियों तथा तीर्थंकर प्रकृतिका अन्तर नहीं है । आठ कषाय, ( अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, दो आयु, मनुष्यगतिपंचकका अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। देवगति ४ का जघन्य साधिक पल्य है तथा उत्कृष्ट १३ सागर है। विशेषार्थ - किसी वेदकसम्यक्त्वी मनुष्यने सुरचतुष्कका बन्ध करनेके अनन्तर मरण करके सौधर्मद्विक या सर्वार्थसिद्धि में जन्म धारण किया । वहाँ सौधर्मद्विककी जघन्य आयु साधक पयप्रमाण वेदकसम्यक्त्वी रहा और सुरचतुष्कका बन्ध नहीं हुआ । मरणके बाद पुनः मनुष्य हो उनका बन्ध प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें तेतीस सागरप्रमाण वेदकसम्यक्त्वयुक्त रहकर सुरचतुष्कका बन्ध नहीं किया। मरण करके मनुष्य हो सुरचतुष्कका बन्ध पुनः प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार पूर्वोक्त वन्धका अन्तर जानना चाहिए | आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट कुछ कम ६६ सागर है । अथवा साधिक तेतीस सागर है । शेष प्रकृतियों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ४२. उपशमसम्यक्त्व में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, साता-असाता वेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, १. खइयम्माट्टणमंतरं केत्रचिरं कालादो होदि ? णत्थि अन्तरं निरंतरं । - खु०बंध २, पृ० २३२ । २. सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके अपरा पत्योपममधिकम् । - त० सूत्र, अ० ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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