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________________ १०१ पयडिबंधाहियारो अंतो। माणे-तिणि संजलणा०णथि अंत०। मायाए दोण्णि संज० णत्थि अंत० । सेसाणं कोधभंगो। लोभे-पंचणा० सत्तदंसणा० मिच्छ. बारसक० चदुआयु० आहारदु० पंचंत० णत्थि अंत० । सेसाणं जह० एग०, उक्क अंतो० । णवरि णिद्दापचला जहण्णु० अंतो० । अकसाई-साद० णत्थि अंत । केवलणा-यथाक्खाद. केवलदंस० एवं चेव । ४०. मदि० सुद०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तेजाक० वपण०४. अगु० उप० णिमि० पंचंत० णत्थिः अंत० । सादासा० छण्णोकर पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा० पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोणियु०-सुभग-सुस्सर-आदेञ्ज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णपुंस० ओरालियस० पंचसंठा० ओरालिय० अंगो० छसंघ० अप्ससस्थ० भग-दुस्सर-अणादे० णीचा. जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिंदोप० दे० । तिणि आयु० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं असंखे०। तिरिक्खायु० जह० अंवो०, उक्क० सागरोपमसदपुधः । वेउव्वियछक्क० जह० एग०, उक्क० उतरते हुए अपूर्वकरणके प्रथमभागमें पुनः बन्ध प्रारम्भ कर देता है । इस कारण इनका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। मानमें-३ संज्वलनका अन्तर नहीं है। मायामें-दो संज्वलनका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियों में क्रोधके समान भंग जानना चाहिए। लोभकषायमें-५ ज्ञानावरण, ७ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, ४ आयु, आहारकद्विक और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। विशेष-निद्रा, प्रचलाका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । अकषायीमें-सातावेदनीयका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-सातावेदनीयका अप्रमत्तसे लेकर सयोगीकेवली पर्यन्त निरन्तर बन्ध होता है । इस कारण उपशान्तकषाय या क्षीणकषायमें साताका अन्तर नहीं बताया है । केवलज्ञान, यथाख्यात संयम, केवलदर्शनका अकषायकी तरह वर्णन जानना चाहिए । ४०. मत्यज्ञान, ताज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वण ४, अगुरुलघु, उपघात, निमोण तथा ५ अन्तरायाका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-ज्ञानावरणादिके अबन्धक उपशान्त कषायादि गुणस्थानमें होंगे। इन कुज्ञानयुगलमें आदिके दो गुणस्थान ही पाये जाते हैं। इससे ज्ञानावरणादिका अन्तर नहीं कहा। ____ साता-असाता वेदनीय, ६ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेद, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयु अथात् देव, नर, नरक आयुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । तियच आयुका जघन्य अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट सागर शत-पृथक्त्व अन्तर है। वैक्रियिक षटकका जघन्य एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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