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महाबंधे अंतो० । सादावे० गत्थि अंत० ।
३६. कोध०-पंचणा० सत्तदंसणा० मिच्छ० सोलस० चदुआयु० आहारदुग० पंचंत० णत्थि अंत० । णिहा-पचला. जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० बं० टीका पृ० २१४ ) इनका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्तकाल है, "उक्कस्सेणः अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट सूत्र २३)।
नपुंसक वेदोका जघन्य अन्तर "जहण्णण अंतोमुहुत्तं" (८७) अन्तमुहूर्त है।
शंका-नपुंसकवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण क्यों नहीं प्राप्त हो सकता ?
समाधान-क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुवाले अपर्याप्तक जीवोंमें नपुंसकवेदको छोड़कर स्त्री व पुरुषवेद नहीं पाया जाता और पर्याप्तकोंमें अन्त मुहूर्त के सिवाय क्षुद्रभवग्रहण काल नहीं पाया जाता।
नपुंसकवेदीका उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं" (८८) सागेरापमशत पृथक्त्व है। क्योंकि नपुंसकवेदसे निकलकर स्त्री और पुरुष वेदोंमें ही भ्रमण करनेवाले जीवके सागरोपम शत-पृथक्त्वसे ऊपर वहाँ रहना संभव नहीं है । पृ. २१५।।
'अपगत वेद में-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण.४ संज्वलन. यश कीर्ति, उच्चगोत्र, ५.अन्तरायोंका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। साता वेदनीयका अन्तर नहीं है ।
विशेषार्थ-अपगत वेदीके "उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं' (९०) उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसका स्पष्टीकरण धवलाटीकामें इस प्रकार है, उपशम श्रेणीसे उतरकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र सवेदी होकर, अपगतवेदित्वका अन्तर कर पुनः उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगत वेदभावको प्राप्त होनेवाले जीवके अपगतवेदित्वका अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है। उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है-"उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटै देसणं" (९१)। इसका स्पष्टीकरण वीरसेन आचार्यने इस प्रकार किया है : किसी अनादि मिथ्या दृष्टि जीवने तीनों करण करके, अर्धपुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण किया और अन्तर्मुहूर्त रहकर उपशम श्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो गया। वहाँ से फिर नीचे उतरकर सवेदी हो, अपगत वेदका अन्तर प्रारम्भ किया और उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण भ्रमण कर पुनः संसारके अन्तमुहूतमात्र शेष रहनेपर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो अन्तरको समाप्त किया । पश्चात् फिर नीचे उतरकर क्षपकश्रेणीको चढ़कर अबन्धक भावको प्राप्त किया। ऐसे जीवके अपगतवेदित्वका कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अन्तर-काल प्राप्त हो जाता है।
३६. क्रोधमें-५ ज्ञानावरण, ७ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, ४ आयु, आहारकद्विक और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। निद्रा, प्रचलाका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत है।
विशेषार्थ-निद्रा, प्रचलाका बन्ध अपूर्वकरणके प्रथमभागपर्यन्त होता है। इन प्रकृतियोंका बन्धक जीव उपशमश्रेणीका आरोहण करके, उपशान्तकषाय पर्यन्त चढ़कर तथा
१. “अवगदवेदेसु अणियट्टि-उवसंम-सुहुम-उवसमाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं ।" -षटर्ख०,अंतरा०,२१४-२१७ ।
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