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पयडिबंधाहियारो
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ताणु०४ इत्थि णपुंसक० तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० उज्जोव ० अप्पसत्थ० दूर्भाग० दुस्सरअणादे० णीचा० जह० अंतो०, एगस० । उक्क० तेत्तीसं० देसू० | सादासादा० पंचणो० पंचिंदि० समचदु० परघादु०-पसत्थ० तस०४ थिरादिदोणि यु० सुभ० - सुस्सर-आदे० जह० एग०, उक्क० अंतोमु० । अट्ठक० दोआयु० वेउन्त्रि ० छक० मणुसगदितिगं आहारदुगं ओघभंगो । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक० सागरोपमसदपुध० | देवायु० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । चदुजा० आदाव थावरादि०४ जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादिरे० । ओरालिय० ओर। लि० अंगो० वज्ररिसभ० जह० एक०, उक्क० पुव्व कोडिदेसू० । तित्थय० जहण्णु० अंतो० । अवगद० - पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जसगि० उच्चा० पंचत० जहण्णु ०
मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका जघन्य अन्तर्मुहूर्त अथवा एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है ।'
विशेषार्थ - मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव मिथ्यात्वयुक्त हो, सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो ( ३ ) सम्यक्त्वको प्राप्त किया। आयुके अन्त में मिथ्यात्वको पुनः प्राप्त करके ( ४ ) आयुको बाँध, (५) विश्राम ले ( ६ ) मरा और तिथंच हुआ । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपम नपुंसकवेदी मिध्यात्वीका उत्कृष्ट अन्तर रहा । ( पृ० १०७ ) यही अन्तर मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का होगा ।
साता-असातावेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ८ कपाय, २ आयु, वैक्रियिक घटक, मनुष्यगतित्रिक, आहारकद्विकका ओघवत् जानना चाहिए । तिर्यंच आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सागर शतपृथक्त्व है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग है । जाति ४, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्र-वृषभसंहननका जघन्य एक समय उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है | तीर्थंकरका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - खुद्दाबंध में स्त्रीवेदीका जघन्य अन्तर क्षुद्रभव- ग्रहणकाल “जहण्णेण खुद्दा"भवग्गणं" (सूत्र ८१ ) कहा है । उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण अनंत कालमसंखेज पोग्गल परियहूँ" ( ८२ ) असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्तकाल कहा है ।
पुरुषवेदीका जघन्य अन्तर एक समय " जहण्णेण एगसमओ" (८४ ) कहा है । इसका खुलासा वीरसेन स्वामीने इस प्रकार किया है: पुरुषवेदसहित उपशम श्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो, एक समय तक पुरुषवेदका अन्तर करके दूसरे समय में मरणकर पुरुषवेदी जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव पुरुषवेदका अन्तर एक समय मात्र पाया जाता है । ( खु०
१. "उंसगवेदेसु मिच्छादिट्ठोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोंवमाणि देसूण णि ।" - षट् खं०, अंतरा० २०७-९ ।
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एगजीवं पडुच्च जहणणेण
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