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महाबन्ध
इस विषय में आचार्य कहते हैं- 'पुरुष नामक कर्म के उदय से स्त्री की अभिलाषा उत्पन्न होती है । स्त्री कर्म के कारण पुरुष की वांछा होती है। ऐसी बात स्वीकार करने पर कोई भी अब्रह्मचारी नहीं होगा, कारण कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है, यह कहा जाएगा।
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कोई जीव दूसरे को मारता है या मारा जाता है, इसका कारण परघात, उपघात नाम की प्रकृतियाँ हैं । यह मानने पर कोई वध करने वाला न होगा । कारण यह कथन किया जाएगा कि कर्म ही कर्म का घात करने वाला है। इस प्रकार जो सांख्य सिद्धान्त के अनुसार मानते हैं, उनके यहाँ प्रकृति ही करती है और सर्व आत्मा अकारक हुए।
समन्वय पथ-इस जटिल समस्या को सुलझाते हुए अनेकान्त विद्या के मार्मिक आचार्य अमृतचन्द कहते हैं
" मा कर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेव स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥” – समयसारकलश, २०५
- 'अर्हन्त भगवान् के भक्तों को यह उचित है कि वे सांख्यों के समान जीव को सर्वथा अकर्ता न मानें, किन्तु उनको भेदविज्ञान होने के पूर्व आत्मा को सदा कर्ता स्वीकार करना चाहिए । जब भेदविज्ञान की उत्पत्ति हो जाए, तब आत्मा को कर्म भावरहित, अविनाशी, प्रवृद्ध ज्ञान का पुंज, प्रत्यक्षरूप एक ज्ञातारूप में दर्शन करो।'
आचार्य महाराज की देशना का भाव यह है कि जब तक भेदविज्ञान ज्योति के प्रकाश से आत्मा आलोकित नहीं हुई है, तब तक आत्मा को रागादिरूप भाव कर्मों का कर्ता मानो । भेद - विज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् आत्मा को ज्ञाता - द्रष्टा मानो । बहिरात्मा में कर्म-कर्तृत्व का भाव मानना चाहिए । परिग्रह-रहित योगरूप अन्तरात्मा को अपने ज्ञान स्वभाव का कर्ता जानना उचित है। आत्मा निर्विकल्प समाधि की अवस्था में अकर्ता कहा गया है । भेद-ज्ञान निर्विकल्प समाधिरूप अवस्था का ज्ञापक है । जयसेनाचार्य समयसार टीका में कहते हैं- “ततः स्थितमेतत्, एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति किं तर्हि रागादिविकल्परहित-समाध लक्षण-भेदज्ञानकाले कर्मणः कर्ता न भवति, शेष काले कर्तेति” ( गाथा ३४४ ) - अतः यह बात जाननी चाहिए कि आत्मा सांख्यमत के समान अकर्ता नहीं है । वह रागादि विकल्परहित समाधिरूप भेद - विज्ञान के काल में कर्मों का कर्ता नहीं है; शेषकाल में कर्ता होता है । यह विकल्परहित समाधि गृहस्थावस्था में असम्भव है । मुनिपद में ही वह होती है। इस प्रकार दृष्टिभेद से आत्मा में कर्तृत्व और अकर्तृत्व का समन्वय किया जाता है। अकर्तापने का एकान्तपक्ष सांख्यदर्शन की मान्यता है । स्याद्वादशासन की मान्यता एकान्तवाद रूप नहीं हो सकती है ।
सांख्यतत्त्वकौमुदी में कहा है
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" तस्मान्न बध्यतेऽसौ न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥६२॥”
इससे कोई भी पुरुष न बँधता है, न मुक्त होता है, न परिभ्रमण करता है । अनेक आश्रयों को ग्रहण करने वाली प्रकृति का ही संसार होता है, बन्ध होता है तथा मोक्ष होता है।
भेदज्ञान का रहस्य - इस पद्य से स्पष्ट हो जाता है कि जो आत्मा की निश्चयनय की अपेक्षा प्रतिपादित शुद्धता को ही एकान्त रूप से ग्रहण कर उसे सर्वथा कर्मबन्ध रहित मानते हैं, वे यथार्थ में सांख्यदर्शनवाले बन जाते हैं । सर्वज्ञ अरहन्त भगवान् की वाणी अनेकान्त तत्त्व को सत्य का स्वरूप बताती । इस कारण जयसेनाचार्य ने कहा है- “ ततः स्थितमेतत्, एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति । किं तर्हि ? रागादिविकल्परहित-समाधिलक्षणभेदज्ञानकाले कर्मणः कर्ता न भवति, शेषकाले भवति” ( समयसार, गाथा
है
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