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________________ प्रस्तावना ७६ ३४४-टीका)-अतः यह बात निर्णीत है कि आत्मा एकान्तरूप से सांख्यमत के समान अकर्ता नहीं है। फिर आत्मा कैसी है? रागादि विकल्परहित समाधिरूप भेदज्ञान के समय यह कर्मों का कर्ता नहीं है। शेष काल में आत्मा कर्मों का कर्ता होता है। अर्थात् जब वह अभेद समाधिरूप नहीं होता है, तब उसके रागादि के कारण बन्ध हुआ करता है। भेदज्ञान का अर्थ अविरत सम्यक्त्वी का ज्ञान समझने से यह भ्रम होता है कि अविरत सम्यक्त्वी के बन्ध नहीं होता है। भेदविज्ञान निर्विकल्प समाधि का द्योतक है जो मुनिपद धारण करने के उपरान्त ही प्राप्त होती है। विकल्पजालपूर्ण गृहस्थावस्था में उसकी सम्यक कल्पना भी अशक्य है। आत्मा कर्मस्वरूप नहीं होता। मुनीन्द्र कुन्दकुन्द का कथन है "जह सिप्पिओ दु कम्म कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो वि य कम्म कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ॥" -समयसार, गा. ३४६ -जैसे शिल्पकार आभूषण आदि के निर्माण कार्य को करता है, किन्तु वह स्वयं आभूषण स्वरूप नहीं होता; उसी प्रकार यह जीव कर्मों को बाँधता हुआ भी कर्मस्वरूप नहीं होता है। शिल्पकार सुनार आभूषण निर्माण में निमित्त कारण है, अतः वह अपने स्वरूप से भी च्युत नहीं होता और निमित्त कारण भी बनता है। इसी प्रकार जीव भी अपने स्वरूप का नाश नहीं करता है और कर्मों । बन्धन में निमित्त रूप भी रहा आता है। उपादान-उपादेय भाव का यहाँ निषेध किया गया है, निमित्त-नैमित्तिक-भाव की अपेक्षा कर्ता, कर्म, भोक्ता, भोग्यपने का व्यवहार उपयुक्त माना है। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं"ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तन कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः”। -समयसार, पृ. ४५५ शंका-सच्चा नय तो निश्चय नय है। व्यवहार तो अभूतार्थ है; मिथ्या है, अतः सांख्यदर्शन की तरह आत्मा को सदा पुरुष के समान निर्लेप शुद्ध मानना चाहिए। प्रत्यक्ष स्वीकार करने में भय नहीं करना चाहिए। समाधान-सम्यग्ज्ञान के अंग होने से जितना सत्यपना निश्चय नय में है, उतना ही समीचीनपना व्यवहार नय में भी है। जो नय परस्पर में निरपेक्ष हो, अन्य नयको मिथ्या मानता है, वह स्वयं मिथ्या रूपता को प्राप्त होता है। निश्चय का यह कथन यथार्थ है कि जीव शुद्ध है, किन्तु व्यवहार का कथन भी सम्यक् है कि जीव में कथंचित कर्तत्व आदि भाव भी पाये जाते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य पद्यनन्दि का 'पंचविंशतिका' के निश्चय पंचाशत अधिकार में किया गया प्रतिपादन महत्त्वपूर्ण है। वे कहते हैं "व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः। शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥" -स"यसार, गा. ६ से उद्धृत व्यवहार नय अभूतार्थ है तथा शुद्धनय भूतार्थ कहा है। जो मुनीश्वर शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वह परम पद को प्राप्त करते हैं। यहाँ श्लोक में आगत 'यतयः' शब्द महत्त्वपूर्ण है। उससे गृहस्थ की व्यावृत्ति हो जाती है। आकुलता के जाल में फँसा हुआ परिग्रह पिशाच के द्वारा छला गया गृहस्थ शुद्ध दृष्टि का पात्र नहीं है। उसका कल्याण व्यवहार नय द्वारा प्रतिपादित पथ का आश्रय ग्रहण करने में है। सविकल्प अवस्थावाले श्रमण का भी अवलम्बन व्यवहार नय रहा करता है। शुद्धोपयोगी निर्विकल्प समाधिवाला दिगम्बर मुनि अभेद दृष्टि रूप निश्चय नय का आश्रय लेता है। पदमनन्दि आचार्य कहते हैं “तत्त्वं वागतिवर्ति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम्। गुण-पर्यायादि-विवृत्तेः प्रसरति तच्चापि शतशाखम् ॥" -पदमनन्दिपंच. श्लो. 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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