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________________ महाबन्ध वास्तविक दृष्टि से अथवा निश्चय नय की अपेक्षा तत्त्व का स्वरूप वचन के अगोचर है, किन्तु व्यवहार नय का आश्रय ले वह कथंचित् वाणी का विषय हो जाता है। गुण, पर्याय आदि के भेद से वह सैकड़ों भेद युक्त हो जाता है। वस्तु का विवेचन भेदग्राही व्यवहार नय के द्वारा ही सम्भव है। एकान्तवादी व्यवहार नय को तिरस्कार और निन्दा का पात्र मानता है, किन्तु अनेकान्त तत्त्वज्ञान का सौन्दर्य समझनेवाला स्याद्वादी व्यवहार नय को भी आदरणीय स्वीकार करता है 1 महत्त्व की बात - 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' का यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है το “मुख्योपचार- विवृतिं व्यवहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति व्यवहृतिः पूज्या ॥ ११ ॥ * मुनीश्वर व्यवहारनय की सहायता से मुख्य तथा उपचार के भेद को समझकर शुद्ध तत्त्व का आश्रय लेते हैं, इस कारण व्यवहार - नय पूज्य है । 'व्यवहृतिः पूज्या' शब्द महान् आध्यात्मिक मुनीश्वर के द्वारा कहे गये हैं। अभेद रत्नत्रयरूप अद्वैत तत्त्व में स्थित निश्चय नयवाला योगी परम पदवी को प्राप्त करता है। एकत्व वितर्क नामक शुक्ल ध्यान के द्वितीय भेद का आश्रय कर शुक्लध्यानी शुद्धोपयोगी मोहनीय कर्म को नष्ट करता है । वास्तव में शुद्ध तत्त्व नयादि के विकल्पों से अतीत है। उस अनुभव की दशा में व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों समान रूप से अग्राह्य बन जाते हैं। पद्यनन्दि आचार्य कहते हैं “नय - निक्षेप - प्रमिति प्रभृति - विकल्पोज्झितं परं शान्तम् । शुद्धानुभूति - गोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ॥४५॥” निश्चयपंचाशत् मैं नय, निक्षेप, प्रमाण आदि विकल्पों से रहित, परमशान्त, शुद्धानुभूतिगोचर चिद्रूप - तेजस्वरूप हूँ । जिनागम का रसपान करनेवाले को एकान्तवाद के दलदल से बचना चाहिए। 'तत्त्वज्ञान - तरंगिणी' का यह कथन हृदयग्राही है Jain Education International " व्यवहारेण बिना केचित्रष्टाः केवल निश्चयात् । निश्चयेन बिना केचित् केवल व्यवहारतः ॥” -- तत्त्वज्ञानतरंगिणी कोई लोग व्यवहार का लोप करके निश्चय के एकान्त से विनाश को प्राप्त हुए और कोई निश्चय दृष्टि को भूलकर केवल व्यवहार का आश्रय ले विनष्ट हुए । अतएव समन्वय की पद्धति अभिवन्दनीय है । अतः उक्त ग्रन्थकार कहते हैं " द्वाभ्यां दृग्भ्यां बिना न स्यात् सम्यग्द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं च स्याद्वादिभिः ॥” जैसे दोनों नेत्रों के बिना सभ्यक् प्रकार से वस्तु का अवलोकन नहीं होता है, उसी प्रकार दोनों नयों के बिना भी यथार्थ रूप में वस्तु का ग्रहण नहीं होता ऐसा भगवान् ने कहा 1 महान् भ्रम - लोग प्रायः लोकाचार तथा लौकिक व्यवहार को (formalities) व्यवहार नय सोचते हैं और निश्चय को सुदृढ़ विचार ( determination) समझकर भ्रान्त धारणा बनाते हैं। इसी के आधार पर वे कहते हैं कि किसी कार्य के सम्पादन के पूर्व निश्चय नय होता है, पश्चात् उसकी पूर्ति हेतु प्रवृत्ति व्यवहारनय है । यह कथन इतना ही विपरीत है, जितना बकराज को हंसराज बताना मिथ्या है। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, जिनका आगमानुसार अर्थ करना तत्त्वज्ञ का कर्तव्य है । सम्यग्ज्ञान के भेदनय का उपभेद व्यवहारनय निश्चयन का साधक है। दोनों में साधनसाध्यभाव है । 'तत्त्वानुशासन' में कहा है 1 “मोक्षहेतुः पुनर्वेधा निश्चयाद् व्यवहारतः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥” – तत्त्वानुशासन, श्लो. २८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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