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________________ प्रस्तावना ८१ मोक्षका मार्ग निश्चय तथा व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। उसमें निश्चयमोक्षमार्ग साध्यरूप है तथा व्यवहार मोक्षमार्ग साधनरूप है। 'तत्त्वार्थसार' में अमृतचन्द्र सूरि ने भी लिखा है “निश्चय-व्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥" -तत्त्वार्थसार साधन से साध्य की सिद्धि की जाती है, इससे साधनरूप व्यवहारनय पूर्ववर्ती होगा और साध्यरूप निश्चयनय पश्चाद्वर्ती होगा। इसका विपरीत कथन करना ऐसी ही विचित्र बात होगी, जैसे यह कहना कि पहले मोक्ष होता है, फिर बन्ध होता है। बुद्धिमान् तथा विवेकी व्यक्ति जैसे बन्धपूर्वक मोक्ष को स्वीकार करता है, उसी प्रकार अनेकान्त दृष्टि तत्त्वज्ञ साधनरूप व्यवहार दृष्टि को प्राथमिकता देकर साध्यरूप दृष्टि को पश्चाद्वर्ती मानेगा। निश्चयनय और व्यवहारनय का आगम में क्या अर्थ है, यह 'तत्त्वानुशासन' में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है "अभिन्न-कर्तृ-कर्मादि-विषयो निश्चयो नयः। व्यवहारनयो भिन्न-कर्तृ-कर्मादि-गोचरः ॥२६॥ निश्चनय में कर्ता, कर्म, कारण आदि भिन्न नहीं होते हैं, अतः वह अभिन्न कर्तृ-कर्मादि विषयक है। वह अभेदग्राही (synthetic approach) है। व्यवहारनय कर्ता-कर्मादि भेद का ग्राहक है। वह (analytic approach) भेद दृष्टि युक्त है। समन्तभद्र स्वामी ने- 'आप्तमीमांसा' में वस्तु का स्वरूप भेद तथा अभेद रूप माना है-"भेदाभेदौ न संवृती"-भेद तथा अभेद वस्तु रूप हैं; कल्पना नहीं है। निर्विकल्प समाधि की स्थिति सामान्य बात नहीं है। उस अवस्था में अद्भुत रूप से आत्मनिमग्नता पायी जाती है। भीम, अर्जुन तथा युधिष्ठिर ने मुनिपद को स्वीकार कर जब निर्विकल्प समाधि में तल्लीनता प्राप्त की थी, तब उनके शरीर पर जलते हुए लोहे के आभूषण पहनाये जाने पर भी वे पूर्णतया स्थिर थे। जब सुकुमाल मुनि निर्विकल्प समाधि का रसपान कर रहे थे, तब स्यालनी उनका शरीर भक्षण कर रही थी; फिर भी वे स्वरूप में निमग्न थे। सुकौशल मुनि की भी ऐसी ही अभेद रत्नत्रय रूप परिणति थी, जब व्याघ्री ने उनके शरीर का भक्षण किया था। उस निर्विकल्प समाधि की स्थिति के अनुसार सांख्य का आत्मा का अकर्तत्व पक्ष निर्दोष तथा यथार्थ है, किन्तु वह सविकल्पदशा में भी अकर्तत्व कहता है, इससे उसकी मान्यता पूर्णतया अवास्तविक बन जाती है। अभेद स्वरूप में निमग्न योगी अद्वैत भाव को प्राप्त होता है। वेदान्तदर्शन भी उस अद्वैत का कथन करता है। इस प्रकार शुद्ध निश्चनय की दृष्टि वेदान्त की अद्वैत विचारधारा के सदृश प्रतीत होती है, किन्तु उसमें और जैन विचारधारा में इतना अन्तर है कि जैनदर्शन सविकल्प अवस्था में भेदरूप द्वैत दृष्टि को भी यथार्थ मानता है। वेदान्ती द्वैत दृष्टि को अयथार्थ तथा काल्पनिक बताता है। स्याद्वाद सिद्धान्त में अद्वैत दृष्टि प्राप्त व्यक्ति इस प्रकार अनुभव करता है “एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा। कोऽवकाशः विकल्पानां तत्राखण्डैकवस्तुनि ॥१५॥* –पद्मनन्दिपंचविंशति, एकत्वाशीति शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा चैतन्य एक है, अद्वैत रूप है। उस अखण्ड आत्मस्वरूप में विकल्पों के लिए कोई स्थान नहीं है। "बद्धो मुक्तोऽहमथ द्वैते सति जायते ननु द्वैतम्। मोक्षायेत्युभय-मनोविकल्परहितो भवति मुक्तः ॥४६॥" -वही मैं बद्ध हूँ, मुक्त हूँ, ऐसी द्वैतबुद्धि द्वैतभाव के होने पर होती है। बद्ध और मुक्त के दोनों मानसिक विकल्पों का भय होना मोक्ष का कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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