SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ महाबन्ध " बद्धो वा मुक्तो वा चिद्रूपो नय- विचारविधिरेषः । सर्वनय पक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ॥५३॥” वही चिद्रूप बद्ध है अथवा मुक्त है, यह नयय - दृष्टि का कथन है। सर्व प्रकार के नयपक्षरहित साक्षात् समयसार है। 'पंचास्तिकाय' में कहा है "जो संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसुगदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । हिंदु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिघणो सणिघणो वा ॥ " - गा. १२८ - १३० - 'जो जीव संसार में स्थित है, उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं । उन भावों से कर्मों का बन्धन होता है । कर्मों के कारण नरक आदि गतियों में गमन होता है। गतियों में जाने पर शरीर की प्राप्ति होती है । शरीर से इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है। इससे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए जीव के इस प्रकार के भाव होते हैं। जिनेन्द्र ने कर्म को सन्तति की अपेक्षा अनादि-निधन और पर्याय की अपेक्षा सादि कहा । इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि यह जीव राग-द्वेष के कारण इस अनादिनिधन संसार चक्र में परिभ्रमण किया करता है । कर्म को पौद्गलिक एवं मूर्तिक मानने में युक्ति आत्मा से सम्बद्ध कर्मों को पौद्गलिक प्रमाणित करते हुए - 'पंचास्तिकाय' में लिखा है Jain Education International " जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं । जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ॥” – पंचास्तिकाय., गा. १३३ 'जीव कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख के हेतु स्वरूप विषयों को मूर्तिमान् इन्द्रियों के द्वारा भोगता है, इससे कर्म मूर्तिक हैं । ' एक पुद्गल द्रव्य ही स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण विशिष्ट होने के कारण मूर्तिक है। अतः कर्मों में मूर्तिक पना सिद्ध होने पर उनकी पौद्गलिकता स्वयं प्रमाणित होती है। टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं- 'मूर्तं कर्म मूर्तसम्बन्धेनानुभूयमानमूर्तफलत्वादाखुविषवत्, इति' - कर्म मूर्तिक हैं, कारण उसका फल मूर्तिक द्रव्य के सम्बन्ध से अनुभवगोचर होता है, जैसे चूहे के काटने से उत्पन्न हुआ विष। चूहे के काटने से शरीर में जो शोथ आदि विकार उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियगोचर होने से मूर्तिमान् है, इससे उसका मूल कारण विष भी मूर्तिमान् होना चाहिए। इसी प्रकार यह जीव मणि, पुष्प, वनितादि के निमित्त से सुख तथा सर्प सिंहादि के निमित्त से दुःखरूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है, अतः इस सुख-दुःख का कारण जो कर्म है, वह भी मूर्तिमान् मानना उचित है । ' जयधवला टीका (१।५७) में लिखा है - "तंपि मुत्तं चेव । तं कथं णव्वदे ? मुत्तोसहसंबंधेण परिणामांतरगमणण्णहाणुववत्तीदो। ण च परिणामांतरगमणमसिद्धं तस्स तेण विणा जरकुट्ठक्खयादीणं विणासाणुववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो ।”— १. “यदाखुविषवन्मूर्तसम्बन्धेनानुभूयते । यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत् ॥” अन. धर्मा, २,३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy