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________________ प्रस्तावना ७७ अमृतचन्द्रस्वामी ने कहा है “सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्य-शक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥”-समयसार कलश, १३६ सम्यक्त्वी के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है, क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि अपने वस्तुपना-यथार्थ स्वरूप का अभ्यास करने को अपने स्वरूप का ग्रहण और पर के त्याग की विधि कर 'यह तो अपना स्वरूप है और यह पर द्रव्य का है, ऐसे दोनों का भेद परमार्थ से जानकर अपने स्वरूप में ठहरता है और पर द्रव्य से सब तरह राग का योग छोड़ता है। आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है कोई लोग कर्म के मर्म को यथार्थ रूप से समझकर आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानते हैं और कहते हैं कि जो कुछ भी परिणमन होता है, सब का कर्तृत्व कर्म पर है। जड़ की क्रिया होती है। सांख्यदर्शन भी पुरुष को कमलपत्र सम मानकर कर्म-जल से उसे पूर्णतया अलिप्त बताता है। वह प्रकृति को ही सब कुछ कर्ता-धर्ता मानता है। इस प्रकार की दृष्टि को महर्षि कुन्दकुन्द एकान्तवादी कहते हैं __ "कम्मेहिं दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं। । कम्मेहिं सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ॥”-समयसार, गा. ३३२ -'यह जीव कर्म के ही द्वारा अज्ञानी किया जाता है। उसके द्वारा ही वह ज्ञानी किया जाता है। कर्म ही जीव को सुलाता है, कर्म ही उसे जगाता है।' “कम्मेहिं भमाडिज्जदि उड्ढमहं चावि तिरियलोयं च। कम्मेहिं चेव किज्जदि सहासहजे त्तियं किंचि ॥"-समयसार, गा. ३३२ - 'कर्म के कारण ही जीव ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोलोक में भ्रमण करता है। जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म हैं, वे भी कर्म के ही द्वारा किये जाते हैं। इस प्रकार कर्मैकान्त मानने वाले के अनुसार कर्म को ही कर्ता, हर्ता, दाता आदि माना जाए, तो क्या आपत्ति है? इस पर कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं "जम्हा कम्म कुव्वदि कम्मं देदि हरत्ति जं किंचि। तम्हा सव्वे जीवा अकारगा होति आवण्णा ॥"-समयसार, गा. ३३५ 'यतः कर्म ही सब कुछ करता है, देता है, हरण करता है, अतः सर्व जीवों में अकारकत्व आ गया।' पुनः उस एकान्त मान्यता में दोषोद्भावन कहते हैं "पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि। एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ॥३३६॥" तम्हा ण कोवि जीवो अबंभचारी दु तुम्हमुवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि जं भणिदं ॥३३७॥ जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी। एदेणत्येण दु किर भण्णदि परघादणामेत्ति ॥३३॥ तम्हा ण कोवि जीवो उवघादगो अत्थि तुम्ह उवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्म घादेदि इदि भणियं ॥३३६॥ एवं संखुवदेसं जेदु परूविंति एरिसं समणा। तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ॥३४०॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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