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महाबन्ध
'जीव के निमित्त को पाकर कर्मबन्ध रूप परिणमन देखकर उपचारवश कहते हैं कि जीव ने कर्मबन्ध किया। उदाहरणार्थ, यद्यपि योद्धा लोग ही युद्ध करते हैं, किन्तु लोग कहते हैं राजा युद्ध करता है, इसी प्रकार व्यवहारनय से कहते हैं कि जीव ने ज्ञानावरणादि का बन्ध किया है।"
अमृतचन्द स्वामी की इसी प्रसंग पर बड़ी सुन्दर उक्ति है
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'यदि जीव पुद्गलकर्म का कर्ता नहीं है, तो उसका कर्ता कौन है? ऐसी आशंका होने पर शीघ्र मोह निवारणार्थ कहते हैं, उसे सुन लो कि पौद्गलिक कर्मों का कर्ता पुद्गल ही है ।'
आत्मा परभावों का कर्ता नहीं होगा, वह अपने निज भाव का कर्ता है, यह बात समझाते हुए कहते
हैं
“जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव । एतर्हि तीव्ररजमोहनिवर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्म कर्तृ ॥ ३ ॥ १८ ॥ *
“ आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् परः सदा ।
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ - समयसार, पृ. १४४
'आत्मा सदा अपने भावों का कर्ता है, पर अर्थात् पुद्गल सदा पौद्गालिक भावों का कर्ता है। आत्मा के भाव आत्मरूप ही हैं, इसी प्रकार पुद्गल भाव भी पुद्गलरूप हैं ।'
उपरोक्त सत्य को हृदयंगम करनेवाले जीव के विषय में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं
“परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वतो ।
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि । " - समयसार, गा. ६३
'ज्ञानी जीव पर को आत्मरूप नहीं मानता है और न आत्मा को पर ही करता है, वह कर्मों का अकर्ता होता है।' जयसेनाचार्य अपनी टीका में यह स्पष्ट करते हैं- “स निर्मलात्मानुभूतिलक्षणभेदज्ञानी जीवः कर्मणामकर्ता भवतीति” – निर्मल आत्मानुभूति स्वरूप भेदज्ञानी जीव कर्मों का अकर्ता होता है ।
यहाँ यह गम्भीर बात समझाते हैं कि जब आत्मा अपने भाव के सिवाय परमार्थ से परभावों का कर्ता नहीं है, तब जीव में कर्मों का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व नहीं रहेगा ।
नाटक समयसार में कहा है
"जोलों ज्ञान को उदोत तोलों नहिं बन्ध होत बरतै मिथ्यात्व तब नानाबन्ध होहि है । ऐसो भेद सुन के लग्यो तू विषय भोगन सूं जोगनि सूं उद्यम की रीति तै बिछोहि है ॥ सुनो भैया सन्त तू कहे मैं समकितवन्त यहू तो एकन्त परमेश्वर का द्रोही है । विषै सुं विमुख होहि अनुभव दशा आरोहि मोक्ष सुख ढोहि तोहि ऐसी मति सोही है ॥३६॥ "
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जिस आत्मा के हृदय में सम्यग्ज्ञान की निर्मल ज्योति प्रदीप्त होती है, उस आत्मा का जीवन सहज पवित्रता के रस से शोभित होता है। वह विषय - सुखों में आसक्त होता है, ऐसा जिन्हें भ्रम है, उनके समाधान निमित्त कविवर बनारसीदासजी कहते हैं
“ज्ञानकला जिसके घट जागी । ते जग माहिं सहज बैरागी ॥ ज्ञानी मगन विषै सुख माहीं । यह विपरीत सम्भवै नाहीं ॥ ४० ॥ ज्ञानशक्ति वैराग्यबल शिवसाधे समकाल ।
ज्यों लोचन न्यारे रहें, निरखे दोऊ ताल ॥४१॥"
१. अनादिबन्धपर्यायवशेन वीतरागस्वसंवेदनलक्षण-भेदज्ञानाभावाद् रागादिपरिणामस्निग्धः सन्नात्मा कर्मवर्गणायोग्य-पुद्गलद्रव्यं कुम्भकारो घटमिव द्रव्यकर्मरूपेणोत्पादयति करोति स्थितिबन्धं बध्नात्यनुभागबन्धं परिणमयति प्रदेशबन्धं तप्तायः पिण्डो जलवत् सर्वात्मप्रदेशैर्गृह्णाति चेत्यभिप्रायः ॥ - जयसेनाचार्य - तात्पर्यवृत्ति टीका ।
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