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प्रस्तावना
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जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेसाहिं ॥ एवं सम्मादिट्ठी वट्टतो बहुविहेसु जोगेसु।
अकरंतो उवओगे रागादी व बज्झदि रयेण ॥-समयसार, गा. २४५-२४६ इसका भाव यह है कि वही पूर्वोक्त पुरुष अपने शरीर के तेल को पोंछकर उसी प्रकार धूलिपूर्ण प्रदेश में शस्त्र द्वारा व्यायाम तथा वृक्ष-छेदनादि कार्य करता है। अब तेल का अभाव होने से उसके शरीर पर धुलि नहीं जमती है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अनेक प्रकार के योगों में विद्यमान रहता है, किन्तु उसके उपयोग में रागादि का अभाव रहता है, इस कारण वह कर्म-रज से लिप्त नहीं होता।
शरीर पर धूलि जमने का कारण व्यायाम नहीं है, कारण शस्त्रसंचालन का अन्वय-व्यतिरेक धूलि जमने के साथ नहीं देखा जाता। शस्त्र-संचालन दोनों अवस्थाओं में होते हुए भी धूलि लेप तब होता है, जब शरीर पर तेललिप्त रहता है। शरीर पर तेल के अभाव में धूलि का लेप भी नहीं पाया जाता, इससे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि धूलि के जमने में कारण तेल का लेप है। इसी प्रकार रागादि के होने पर कर्मों का लेप होता है। आसक्तिजनक रागादि के अभाववश कर्मों का भी लेप नहीं होता। पं. आशाधरजी ने कहा है
"भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया हेयं वैषयिकं सखं निजम्पादेयं त्विति श्रद्दधत चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान्
शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यघैः ॥" -सागरधर्मा. १,१३ अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय के अधीन रहनेवाला अविरत सम्यक्त्वी सर्वज्ञदेव के वचनानुसार विषय-सुख को त्याज्य और आत्मीक आनन्द को ग्राह्य श्रद्धान करता हुआ भी, जैसे कोट्टपाल के द्वारा मारने के लिए पकड़ा गया चोर आत्मनिन्दा-गर्दा आदि में प्रवृत्ति करता है, उसी प्रकार वह कषायोद्रेकवश इन्द्रियजन्य सुख का अनुभव करने में प्रवृत्त होता है और प्राणियों को पीड़ा भी देता है, किन्तु वह पापों से पीड़ित नहीं होता। अनासक्त भाव से विषय सेवन करने के कारण वह बन्ध की तीव्र व्यथा नहीं उठाता। इसका भाव यह नहीं है कि चतुर्थगुणस्थानवाला सर्वथा बन्ध-विमुक्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी का उदय न होने से उस सम्बन्ध से होनेवाला बन्ध नहीं होता है। एकान्त नहीं है। कर्मबन्ध पर परमार्थदृष्टि
जीव परमार्थदृष्टि अपने भावों का कर्ता है, फिर उसे कर्म का कर्ता क्यों कहते हैं? इसके समाधानार्थ समयसारकार कहते हैं
“जीवहि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥ जोधेहि कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण॥*-समयसार, गा. १०५-१०६॥
१. “तैल-म्रक्षणा भावे यथा रजोबन्धो न भवति, तथा वीतरागसम्यग्दृष्टेर्जीवस्य रागाद्यभावाद्बन्धो न भवति"-जयसेनाचार्यकी टीका पृ. ३३६, स.सा. गाथा २४६ । जैसे तेल की चिकनाई के अभाव में धूलिका बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार वीतराग
सम्यक्त्वी जीव के रागादिके अभाव से बन्ध नहीं होता है, अर्थात् सरागी सम्यक्त्वीके रागके कारण बन्ध होता है। २. “नोत्तप्यते नोत्कृष्टं क्लिश्यते। कोऽसौ, सोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिः, किं पुनः त्यक्तविषयसुखः सर्वात्मनैकदेशेन वा हिंसादिभ्यो विरतश्चेत्यपि शब्दार्थः ।" -स्वोपज्ञ टीका सा.ध. १,१३
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