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महाबन्ध
मन-वचन-कायवर्गणाओं की सहायता से पुद्गल कर्म-वर्गणारूप पिण्ड आकर प्रविष्ट होता है । वे कर्म-वर्गणाएँ राग-द्वेष तथा मोह के अनुसार अपनी स्थिति प्रमाण ठहरकर क्षीण हो जाती हैं ।
यथार्थ बात यह है कि राग-द्वेष, मोह के कारण आत्मा में एक उत्तेजना विशेष उत्पन्न होती है। उससे वह कर्मों को आकर्षित कर बाँधता है; जैसे गरम लोहपिण्ड जलराशि को आत्मसात् किया करता है। रागादि से बन्ध होता है
'समयसार' में संक्षेप में बन्धतत्त्व को इस प्रकार समझाया है
" रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा |
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ १५०॥ " - प्रवचनसार, गा. १७६
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रागपरिणाम विशिष्ट जीव कर्मों का बन्ध करता है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है। जीवों के बन्ध का संक्षेप में यहीं तात्त्विक वर्णन है ।
राग-द्वेष से बन्ध होता है, रागादि के अभाव होने पर क्रियाओं के होते हुए भी बन्ध नहीं होता, इसे सोदाहरण कुन्दकुन्द स्वामी इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं
“जह णाम कोवि पुरिसो नेहभत्तो दु रेणुबहुलम्म । ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहि वायामं ॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकलिवंसपिंडीओ । सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥ उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्जदु किं पच्चयगो दु तस्स रयबंधो ॥ जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टतो बहुविहासु चेट्ठासु ।
रायादी उवओगे कुव्वतो लिप्पदि रयेण ॥” – समयसार, गा. २३७-२४१ - आचार्य महाराज के कथन का भाव यह है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगाता है तथा धूलिपूर्ण स्थल में जाकर शस्त्र-संचालनरूप व्यायाम करता है तथा ताड़, केला, बाँस आदि के वृक्षों का छेदन - भेदन करता है । इन क्रियाओं के करते हुए जो धूलि उड़कर उसके शरीर पर चिपकती है, उसका कारण व्यायाम क्रिया नहीं है। उसका वास्तविक कारण है- शरीर में तेल का लगाना। इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव अनेक चेष्टाओं को करता है । अपने उपभोग- परिणामों में रागादि धारण करता है, इससे वह कर्म रूपी धूलि के द्वारा लिप्त होता है।
यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि शरीर में रज-लेपका कारण तेल के स्थान में व्यायाम क्रिया को क्यों न माना जाए? इसका समाधान स्वामी कुन्दकुन्द अधिक स्पष्टतापूर्वक करते हुए लिखते हैं“जह पुण सो चेव णरो गेहे सव्वा अवणिये संते । रेणुबहुलम्म ठाणे करेदि सत्थेहि वायामं ॥
छिंददि मिंददि य तहा तालीतलकदलिवंसपिंडीओ ।
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सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥ - समयसार, गा. २४२ - २४३ उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्जहु किं पच्चयगो ण तस्स रयबंधो ॥
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